चेम्पकरमण पिल्लई स्वतंत्रता आन्दोलन के सेनानियों की श्रृंखला की वो कड़ी हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश को स्वतन्त्र करने के लिए और अंग्रेजों के विरुद्ध एक युद्ध छेड़ने के प्रयासों में समर्पित कर दिया| १५ सितम्बर १८९१ को त्रिवेंद्रम में पुलिस कांस्टेबल पिता चिन्नास्वामी पिल्लई और नागम्मल के घर जन्में चेम्पकरमण अपने विद्यालयी जीवन में ब्रिटिश जीवविज्ञानी वाल्टर स्ट्रिकलैंड के संपर्क में आ गए जो विभिन्न प्रजातियों के पेड़ पौधों की तलाश में त्रिवेंद्रम आये हुए थे| स्ट्रिकलैंड के साथ उनका संपर्क इतना प्रगाढ़ हो गया कि वो उनके साथ यूरोप चले गए जहाँ १५ वर्षीय चेम्पकरमण को स्ट्रिकलैंड ने आस्ट्रिया के एक स्कूल में भर्ती करवा दिया और जहाँ से उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की| उन्होंने अपनी पढाई जारी रखी और बाद में इंजीनियरिंग में डिप्लोमा लिया|
प्रथम विश्व युद्ध के समय सितम्बर १९१४ में उन्होंने भारत की आज़ादी की अलख जगाने के लिए ज्यूरिख में इंटरनेशनल प्रो इंडिया कमेटी बनाई| इसी समय सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक कुछ भारतीय क्रांतिकारियों ने बर्लिन में इंडिया इन्डिपेंडेंस कमेटी बनाई| सरोजिनी नायडू के भाई वीरेन्द्रनाथ चटोपाध्याय इसके अध्यक्ष बनाये गए और इसके सदस्यों में शामिल थे- भूपेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद के भाई), बरकतुल्लाह, चंद्रकांत चक्रवर्ती, बीरेंद्र सरकार आदि| अक्टूबर १९१४ में चेम्पकरमण बर्लिन पहुंचे और अपने संगठन का इंडिया इन्डिपेंडेंस कमेटी में विलय कर इसमें शामिल हो गए और फिर यही संगठन विदेशों में भारत की आज़ादी की अलख जगाने वाला और क्रांति की गतिविधियाँ करने वाला निर्देशक और नियंत्रक संगठन बन गया, जिसकी शाखाएं यूरोप और अमेरिका के अनेकों शहरों में खोली गयीं| इंडिया इन्डिपेंडेंस कमेटी शीघ्र ही अमेरिका में बनाई गयी ग़दर पार्टी के साथ मिलकर जर्मनी की ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में शामिल हो गयी| जुलाई १९१४ में चेम्पकरमण ने ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों से विद्रोह करने और भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने का आव्हान किया| वो पहले व्यक्ति थे जिनके मन में इस तरह का विचार आया|
जय हिंद का उदघोष देने वाले चेम्पकरमण काबुल में राजा महेंद्र प्रताप के नेतृत्व में बनाई गयी निर्वासित सरकार के विदेश मंत्री बनाये गए पर प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति और जर्मनी की हार के बाद ये सभी योजनायें असफल हो गयी और चेम्पकरमण का विचार मूर्त रूप ना ले सका पर जब नेता जी सुभाष चन्द्र बोस वियना पहुंचे तो चेम्पकरमण ने उन्हें अपनी कार्ययोजना के बारे में बताया जिसे रासबिहारी बोस का भी आशीर्वाद प्राप्त था| बाद में जर्मनी ने भारतीय क्रांतिकारियों को संदेह की नज़रों से देखना शुरू कर दिया जिसे लेकर चेम्पकरमण और हिटलर में कई बार बहस हुयी| परिणाम ये हुआ कि वो नाजियों के निशाने पर आ गए और कहा जाता है कि नाजियों ने २६ मई १९३४ को उन्हें मार दिया| उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनके अंतिम अवशेष उनकी मातृभूमि में विसर्जित किये जाए और अनगिनत कठिनाइयों और संघर्षो की बदौलत उनकी मृत्यु के ३३ वर्षों बाद उनकी पत्नी ने उनकी इस इच्छा को पूरा किया, जब भारतीय नौ सेना का युद्धपोत आई.एन.एस. देहली उनके अंतिम अवशेष लेकर १६ सितम्बर १९६६ को कोचीन पहुँचा और माँ भारती के इस सपूत का फिर से माँ से मिलन हुआ| कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|
~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी