गृहस्थ आश्रम

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मंच पर आसीन आदरणीय महानुभावों एवं मान्यवर श्रोताओं तथा प्यारे मित्रों आज मैं आपको गृहस्थ आश्रम के विषय में अपने कुछ विचार आपके समक्ष रखना चाहता हूँ।

विवाह करने का अधिकार क्रम से चारों अथवा तीन अथवा दो अथवा कम से कम सांगोपांग एक वेद के अध्येता धार्मिक, विद्वान्, सदाचारी और ब्रह्मचारी व्यक्ति को है। विवाह करने का मुख्य आधार है- अनुकूल गुण-कर्म-स्वभाव का मेल होना। जन्म-कुण्डली देखकर विवाह करना उचित नहीं है, क्योंकि वधू-वर के भविष्य और परस्पर मेल का जन्म-कुण्डली से कोई सम्बन्ध नहीं है।

वर्ण व्यवस्था एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसमें गुण-कर्म-स्वभाव एवं योग्यता के आधार पर समाज को चार विभागों में बांटा जाता है। वर्ण चार होते हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। चारों वर्णों में से प्रथम तीन वर्णस्थ व्यक्ति को द्विज कहते हैं। द्विज शब्द का शाब्दिक अर्थ है जिसका दूसरी बार जन्म हुआ हो। माता-गर्भ से संसार में आना प्रथम जन्म है, तो आचार्य के ज्ञानरूपी गर्भ से विद्या-स्नातक होना दूसरा जन्म है।

मानव समाज के तीन मुख्य प्रकार के शत्रु हैं- अज्ञान, अन्याय तथा अभाव। इन्हें दूर करने का दायित्व द्विजों अर्थात् क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों का है। वैदिक व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं मानी जाती है। उसका आधार गुण-कर्म और स्वभाव होता है। शास्त्रों में ब्राह्मण बनने के लिए कुछ गुण-कर्म निश्चित किए हैं। उन गुण-कर्मों को धारण करने वाला कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण बन सकता है। अर्थात् ब्राह्मण बनने के लिए ब्राह्मण परिवार में जन्म लेना आवश्यक नहीं है। ब्राह्मण बनने के लिए पढ़ना व पढ़ाना, यज्ञ करना व कराना, धर्म का आचरण करना, वेदों को मानना आवश्यक है।

जो व्यक्ति प्रजा की रक्षा और पालन करता है उसे क्षत्रिय कहते हैं। वैश्य के कर्म कृषि, पशुपालन एवं व्यापार आदि हैं। तथा जो व्यक्ति पढ़ाने पर भी नहीं पढ़ सकता उसे शूद्र कहते हैं। शूद्र का मुख्य कार्य सेवा करना है। पर शूद्र की सन्तानें विद्यादि में उन्नति कर द्विज अर्थात ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य बन सकती हैं।

विवाह आठ प्रकार के होते हैं। उनमें सबसे उत्तम विवाह ब्राह्म विवाह है। पूर्ण विद्वान, धर्मिक, सुशील वर-वधू का परस्पर प्रसन्नता के साथ विवाह होना ब्राह्म विवाह है। जीवित माता-पिता, विद्वान्, वृद्धजनों की श्रद्धा से सेवा करने को श्राद्ध कहते हैं तथा जीवित माता-पिता, विद्वान् आदि को अपने सेवा एव व्यवहारादि से प्रसन्न रखना तर्पण है। मृत पितरों का श्राद्ध व तर्पण सम्भव नहीं है। ऐसा करना वेद आदि शास्त्रों से विरुद्ध है।

पंचमहायज्ञ ये हैं- 1. ब्रह्मयज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. बलिवैश्वदेवयज्ञ और 5. अतिथियज्ञ। प्रातः सायं ईश्वरोपासना करना तथा स्वाध्याय करना ब्रह्मयज्ञ है। पर्यावरण शोधन के लिए अग्निहोत्र का अनु ठान देवयज्ञ है, माता-पिता, बड़े-बुजुर्गों की सेवा उनकी आज्ञापालन तथा प्रियाचरण पितृयज्ञ है, अपने आश्रित प्राणियों अनाथों वंचितों की अन्नादि से सेवा बलिवैश्वदेवयज्ञ है तथा धार्मिक, विद्वान्, सत्य के उपदेशक व्यक्ति की सेवा, सत्कार और सम्मान करना अतिथियज्ञ है। प्रत्येक गृहस्थी को अपने घर में पंच महायज्ञों को अवश्य करना चाहिए। जिस घर में पंचमहायज्ञ होते हैं उनकी सन्तान सुसंस्कारी तथा सुयोग्य होती है। इन्हीं विचारें के साथ मैं अपने वक्तव्य को यहाँ विराम दे रहा हूंँ धन्यवाद..!!

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