“परहित हरहित”
(तर्ज :- ओ साथी रे)
ओ साधक रे ब्रह्म सहित ही जीना।
वेदमय जीवन सच्चा जीवन, साधक होके तू जीना।। टेक।।
ब्रह्मबिन जीवन थोथा जीवन।
भटके इत उत बिन सहारे।।
कहने भर के रिश्ते परिचय।
वक्त पड़े झूठे हैं सारे।।
तूने ये सोचा ना ऽ इनका भरोसा ना ऽ
इनका कहीं ना भरोसा।। 1।।
ब्रह्ममय जीवन सार्थक जीवन।
हरपल इसको शाश्वत सहारे।।
हर प्रश्वास में हर इक श्वास में।
मानव ओऽम् ही ओऽम् उच्चारे।।
सोऽम्-मय जीवन ऽ ओऽम् भरा जीवन ऽ
आह्लाद ही आह्लाद पीना।। 2।।
यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार,
योग मार्ग के हैं सब द्वारे।
धारणा ध्यान समाधि संयम,
सुख आनन्द ही विस्तारे।।
परहित हर पल ऽ हरहित हर पल ऽ
बंटने का दिव्य हो जीना।। 3।।
भलाई किए जा, सच को जिए जा।
ये ही सारे धरम पुकारे।
पर दुःख जुड़े तू, सब सुख बांटे।
जीवन धारा विस्तारे।।
परहित रस्ता ऽ सच्चा रस्ता ऽ
इस पर भावना बना जा।। 4।।