वर्तमान विश्व में कई चिकित्सा प्रणालियां हैं। जिनमें प्रमुख ये हैं- (१) एलोपॅथिक चिकित्सा प्रणाली, (२) होम्योपॅथी चिकित्सा प्रणाली, (३) आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली, (४) योग चिकित्सा प्रणाली, (५) प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली, (६) चुम्बक चिकित्सा प्रणाली, (७) जल चिकित्सा प्रणाली, (८) मिट्टी चिकित्सा प्रणाली, (९) रेकी चिकित्सा प्रणाली, (१०) एकी चिकित्सा प्रणाली, (११) समदाब चिकित्सा प्रणाली, (१२) अतिदाब चिकित्सा प्रणाली, (१३) समग्र चिकित्सा प्रणाली, (१४) बिना मेड़िकल शिक्षा चिकित्सा प्रणाली, (१५) रविरश्मि चिकित्सा प्रणाली, (१६) रंग चिकित्सा प्रणाली, (१७) मम चिकित्सा प्रणाली, (१८) न मम चिकित्सा प्रणाली, (१९) गंध चिकित्सा प्रणाली, (२०) होम चिकित्सा प्रणाली, (२१) चाय रोटी चिकित्सा प्रणाली, (२२) ज्वारा गेहूं सत चिकित्सा प्रणाली, (२३) स्व-निर्देश चिकित्सा प्रणाली, (२४) स्वाद चिकित्सा प्रणाली, (२५) सम्मोहन चिकित्सादि।
इन सारी चिकित्सा प्रणालियों का हम स्तरीकरण आत्मा के आधार सिद्धान्त जो सांख्य दर्शन से लिया गया है मान सकते हैं। सांख्य में पच्चीस तत्त्वों की गणना दी हुई है जो इस प्रकार सूत्रबद्ध है- सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः। प्रकृतेर्महान महतो ऽ हंङ्कारो ऽ हंङ्कारात्पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः।।
१. शुद्ध, मध्य, जड़ तीन मिश्र होकर संघात साम्य है प्रकृति सूक्ष्म। २. प्रकृति सूक्ष्म पर अकंपनशील गतिदाता परमात्मा द्वारा प्रकम्पन प्राप्त आत्मा के अपदार्थी संघात से निर्मित होता है अर्थ महान और ३. अर्थ महान से संयुक्त होती है बुद्धि- महत्तत्व। ४. जिससे उत्पन्न होता है अहंकार (यही प्रकृति में होते हैं सूक्ष्म भूत उतरते हैं तन में) ५. अहंकार से होता है मन। ६. मन सूक्ष्मभूत युजित से ज्ञानेन्द्रियां और फिर कर्मेन्द्रियां और पांच तन्मात्राओं से पांच स्थूलभूत। सिलसिलेवार पच्चीसों का अहसास है सांख्य विज्ञान। क्रमबद्ध ये पच्चीस इस प्रकार हैं- १. पुरुष- परमात्मा, २. पुरुष- आत्मा, ३. अर्थ संघात- प्रकृति, ४. महत्तत्व- बुद्धि, ५. मन, ६. ज्ञानेन्द्रियां- पांच, ७.सूक्ष्मभूत- पांच, ७. कर्मेन्द्रियां- पांच, ८. स्थूलभूत- पांच।
उपरोक्त सारी चिकित्सा प्रणालियां सांख्य दर्शन के इन आठ स्तरों में स्तरीकृत की जा सकती हैं। आत्मा स्तर से छूती प्रणाली मात्र एकी चिकित्सा प्रणाली ही है। एकी चिकित्सा प्रणाली में सर्व पच्चीस तत्वों का समुचित वैज्ञानिक समावेश है।
कठोपनिषद २/३/७÷८ में १/३/३÷११ में ऐसा ही क्रम दिया है। यह पूरा अद्भुत एकी चिकित्सा विज्ञान है। संक्षेप में यह इस प्रकार है.. विषय रास्ते, इन्द्रिय घोड़े, मन लगाम, बुद्धि सारथी, आत्मा रथी। आत्मा रथी ब्रह्म ज्ञानमय सशक्त, बुद्धि नियंत्रित, मन संयमित घोड़े संयमित, विषय सात्विक- एकी स्वास्थ्य विज्ञान है। यही परमपद प्राप्ति विधान है। तन संयुक्त, विषय, इन्द्रिय (कर्म फिर ज्ञान), सूक्ष्मभाव (शब्दादि), मन, बुद्धि, जीवात्मा, आत्मा, अव्यक्त (अव्यक्तार्थ ब्रह्म का), पुरुष। यह परमतम, सूक्ष्मतम, महानतम है। इस सिद्धान्त का निरूपण गीता में भी है।
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।। (३/४२) एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।। (३/४३) इसका सरलार्थ यह है कि शरीर से कर्मेन्द्रियां, कर्मेन्द्रियों से ज्ञानेन्द्रियां, ज्ञानेन्द्रियों से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से अर्थ, अर्थ से आत्मा, आत्मा से परमात्मा परे है।
अति आत्म साधना का स्वास्थ्य हेतु व्यवहार प्रयोग एकी चिकित्सा है। एकी चिकित्सा प्रारूप इस प्रकार संक्षिप्त रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।
(१) स्थिरं सुखम् आसनम् :- तन की अतनाव अवस्था। (२) स्व-आकलन :- अ) सिर पर मूर्धा स्थान पर हाथ, ब) मूर्धा स्वर ‘ऋ’ तथा ‘लृ’ का उच्चारण, स) हाथ में प्रकम्पन अहसास (प्रकम्पन मात्रा स्मरण रखें)। (३) तीन बार श्वास प्रश्वास देखना। (४) दीर्घ स्वर ‘‘अगाओ’’ या इष्ट नाम पूरी सांस भर लें। (४) सुचालनम् :- अ) द्वि पाद, ब) द्वि ऊरू, स) द्वि भुजा, द) द्वि कर। (५) सुस्थिरम् :- अ) नाभिः, ब) हृदयम्, स) कण्ठः, द) शिरः, (६) नवद्वारम् :- १) पायुः, २) उपायुः, ३) मुख, ४,५) द्वि नाक, ६,७) द्वि चक्षु, ८,९) द्वि कान। (७) अव्यक्त द्वारम् :- अ) नाभिः, ब) सहस्रार। (८) अष्टचक्र :- १) मूलाधार भूः, २) जनः, ३) स्वः, ४) महः, ५) अनाहतः, ६) तपः, ७) भुवः, ८) सहस्रार सत्यम्। (९) सप्त ऋषि :- अ) वाक् वाक्, १) अपरा, २) परा, ३) पश्यन्ती, ४) मध्यमा, ५) वैखरी, ६) अभिव्यक्ता, ७) अव्यक्ता- अपरा। ब,स) प्राणः प्राणः :- १) प्राण, २) अपान, ३) समान, ४) व्यान, ५) उदान। द,ई) चक्षुः चक्षुः :- १) सूर्यः ज्योतिः, २) वर्चः ज्योतिः, ३) ज्योतिः सूर्यः, ४) अग्निः ज्योतिः, ५) वर्चः ज्योतिः, ६) ज्योतिः अग्निः। फ,य) श्रोत्रं श्रोत्रम् :- १) प्राची, २) दक्षिणा, ३) प्रतीची, ४) उदीची, ५) ध्रुवा, ६) ऊर्ध्वा, ७) अदिति। (१०) पंचकोष :- १) अन्नमय, २) प्राणमय, ३) मनोमय, ३) विज्ञानमय, ५) आनन्दमय। (११) पंच अवस्था :- १) जागृत, २) स्वप्न, ३) सुषुप्ति, ४) तुरीय, ५) तुरीयातीत। (१२) पंच साधना :- १) अन्तर्स्पर्श, २) अन्तर् रस, ३) अन्तर्गन्ध, ४) अन्तरूप, ५) अन्तर्शब्द, (पंच साधना त्रिचरणीय है- अन्तर्मौन, अन्तर्सोऽम्, अन्तर्-ओऽम्) (१३) त्रि शरीर :- १) स्थूल, २) सूक्ष्म, ३) अव्याहत।
उपरोक्त १३ चरण स्व-चिन्तन के अतन्द्रा या स्व-तन्द्रा चरण हैं। (१४) सप्त आत्म :- १) सूक्ष्मतम, २) सुकम्पनशील-कम्पनदाता, ३) सत्-चित्, ४) चिद्-बिन्दु, ५) ब्रह्म निकटतम, ६) तत्त्वं सुपदार्थम्, ७) ब्रह्मस्थ। (१५) सप्त अति-आत्म :- १) सूक्ष्मतम-महानतम, २) अकंपनशील गतिदाता, ३) सत्-चित-आनन्द, ४) चिद्-बिन्दु-आनन्द, ५) दूरतम-निकटतम, ६) सर्वत्र सम, ७) खं ब्रह्म। (१६) सप्त आत्म सप्त अति-आत्म :- १) सूक्ष्मतम में महानतम-सूक्ष्मतम, २) सुकम्पनशील में अकम्पनशील गतिदाता, ३) सत-चित में सत्-चित-आनन्द, ४) चिद्-बिन्दु में चिद्-बिन्दु-आनन्द, ५) ब्रह्म निकटतम में दूरतम-निकटतम, ६) तत्त्वं सुपदार्थम् में सर्वत्र सम, ७) ब्रह्मस्थ में खं ब्रह्म। (१७) त्रि वाक् :- अ) आदि मध्य अन्त सम, ब) अगाओ थम, स) अगाओ थम, द) अगाओ थम (अगाओ की जगह कोई भी इष्ट ले सकते हैं)। (१८) अगाओ पूर्णम् :- अ) पूर्ण है यह, ब) पूर्ण है वह, स) पूर्ण है यह वह, द) पूर्ण है, ई) पूर्ण को कहते हैं पूर्ण, फ) पूर्ण से पूर्ण निकाल-पूर्ण ही शेष, य) पूर्ण है अशेष। (१९) अगाओ अर्चना :- अ) आत्मधा आत्मदा, ब) अमृतधा अमृतदा, स) शृतधा शृतदा, द) ऋतधा ऋतदा, ई) ओजधा ओजदा, फ) बलधा बलदा, र) शृत्विजा-ऋत्विजा, ल) गृहनियन्ता-हिरण्यगर्भा, व) पूर्णधा पूर्णदा। (२०) पूर्णस्थ :- अ) पूर्णानन्द बह रहा, ब) मैं तैरता सा दौड़ता, स) तैरता सा उड़ता, द) उड़ता सा तैरता, ई) अमृत ओढ़ना, फ) अमृत बिछौना, व) अमृत पीता, र) अमृत जीता (उपरोक्त सात चरण- स्व अति आत्मन या अगाओऽन चरण है)। (२१) अति आत्म अवतरणम् :- अ) अति आत्म आत्म में, ब) आत्म अर्थ में, स) अर्थ बुद्धि में, द) बुद्धि चित ज्ञान में, ई) चित ज्ञान मन में, फ) मन ज्ञानेन्द्रियों में, य) ज्ञानेन्द्रिय कर्मेन्द्रिय में, र) कर्मेन्द्रिय सुपथ में। (२२) ऋत शृत अवतरणम् :- अ) शृतम्भरा मेधा, ब) ऋतम्भरा प्रज्ञा, स) ऋचा वाक् में, द) यजुर् मन में, ई) साम प्राण में, फ) अथर्व-इन्द्रियों में, य) आयुर्वेद तन में, र) नाट्यवेद जीवन में, ल) जीवन परहित में। (२३) पवित्र अवतरणम् :- अ) आत्म-अन्तर्-अस्तित्व पवित्र, ब) अन्तर्-अस्तित्व प्रज्ञा पवित्र, स) अन्तर्ज्योति नेत्र पवित्र, द) अन्तर्शब्द कर्ण पवित्र, ई) अन्तर्गन्ध नासिका पवित्र, फ) अन्तर्-रस रसना पवित्र, य) अन्तर्स्पर्श त्वक् पवित्र, र) अन्तर्स्वर कण्ठ पवित्र, ल) अन्तर् अक्षर वाक् पवित्र, व) अन्तर्महत् अन्तस् पवित्र, श) अन्तर्स्फुरण नाभि पवित्र, स) अन्तर्बल तन पवित्र, ह) अन्तर्-ओज अन्तःकरण पवित्र, क्ष) खं ब्रह्म सर्वत्र पवित्र। (२४) आरोह इमं सुखं रथम् :- अ) आत्म अन्तर् अस्तित्व में, ब) अन्तर् अस्तित्व प्रज्ञा में, स) अन्तर्ज्योति नेत्र में, द) अन्तर्शब्द कर्ण में, इ) अन्तर्गन्ध नासिका में, फ) अन्तर्-रस रसना में, य) अन्तर्स्पर्श त्वक् में, र) अन्तर्स्वर कण्ठ में, ल) अन्तर्-अक्षर वाक् में, व) अन्तर्महत्-अन्तस् में, श) अन्तर्स्फुरण नाभि में, स) अन्तर्बल तन में, ह) अन्तर्-ओज अन्तःकरण में, क्ष) खं ब्रह्म सर्वत्र। (उपरोक्त चार चरण स्व-स्थीकरण, स्व-अस्तिकरण, स्व-आधीनीकरण, स्व-तन्त्रीकरण, स्व-यमीकरण, स्व-रमीकरण, स्व-आलंबनीकरण के हैं। (२५) सुजीवनम् :- अ) ज्ञान, श्रम, नियम, तप- सुरचना; ब) यशोमई, श्री-मई, समृद्धिमई- सुरचना; स) सत्य, यश, श्री, आह्लाद, मित्रता आभर जीवन; द) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सुजीवनम्। (२६) जीवेम शत-अधिकम् :- अ) तब अब तब ब्रह्म, ब) अस्थाई अब हम, स) ब्रह्म युजित हम, द) देखें ब्रह्म शत अधिकम्, ई) सुनें ब्रह्म शत अधिकम्, फ) श्वासें ब्रह्म शत अधिकम्, य) आस्वादें ब्रह्म शत अधिकम्, र) स्पर्शें ब्रह्म शत अधिकम्, ल) आरोहें ब्रह्म शत अधिकम्, व) रहें ब्रह्म शत अधिकम्, ह) अदीन ब्रह्मित शत अधिकम्। (२७) दिव्य पर्यावरण :- अ) द्युतिशील शान्त प्राप्त (स्थैर्य संतुलनमय) प्राप्त, ब) अन्तरिक्ष शान्त प्राप्त, स) आधार धरा शान्त प्राप्त, द) प्रवहणशील शान्त प्राप्त, ई) औषध अनाज शान्त प्राप्त, फ) वनस्पति रस शान्त प्राप्त, य) शृत शान्त प्राप्त, र) ऋत शान्त प्राप्त, ल) महादेव शान्त प्राप्त, व) देव शान्त प्राप्त, ह) प्रदेव शान्त प्राप्त, श) उपदेव शान्त प्राप्त, स) सर्व सामंजस्य शान्त प्राप्त, क्ष) ब्रह्म शान्त प्राप्त, क) शान्ति शान्त प्राप्त, ख) आधिभौतिक शान्त प्राप्त, ग) आधिदैविक शान्त प्राप्त, घ) आध्यात्मिक शान्त प्राप्त, ङ) शान्तिः शान्तिः शान्तिः (उपरोक्त तीन चरण सुजीवनम् चरण हैं स्थैर्य संतुलन चरण हैं। (२८) दीर्घ स्वर ‘‘अगाओ’’ या इष्ट स्वर सम्पूर्ण दीर्घ श्वास के साथ कहना। (२९) तीन बार सांस को आते जाते सहज देखना। (३०) स्व आकलन (३१) शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
एकी साधना का उच्च रूप पंच साधना द्वारा स्वस्वास्थ्य संस्थान सशक्त करना है। पंच साधना का स्थूल रूप स्व-उन्मेषीकरण है, व्यापक स्व-उन्मेषीकरण है- (३३ x ३२ x ३१ x ……. ३ x २ x १) देवताओं की क्रमशः अनुक्रम पंच देव व्यवस्था (कुल व्यवस्था ५ x ४ x ३ x २ x १ x ३३ x ३२ x ३१ x ……. ३ x २ x १) का उन्मेषीकरण- क्रमशः साधना द्वारा पल्लवित होता होता तैंतीस, त्रि, एक में सिमटता सिमटता अशब्द, अस्पर्ष, अरूप, अरस, अगंध पंची से अन्तर्शब्द, अन्तस्पर्श, अन्तर्-रूप, अन्तर्-रस अन्तर्गन्ध हो अपदार्थ (अ+पदार्थ = अतिशक्ति पदार्थ, अपद + अर्थ = पद रहित शुद्ध अर्थ-चित्ति) से गुजरता नित्यम्, अव्ययम्, अनादि, शून्य अस्तित्व सीमा रेखा अस्तित्वित आत्म हो हो जाता है। यह अति आत्म पूर्णता का प्रवेशद्वार है.. ‘इलसपद’ है। इलसपद ‘समिध्यस’ पद है। अमृत ओढ़ना, अमृत बिछाना, अमृत जीना अमृत पीना है। स्वस्थ (स्व-अस्ति) का सर्वोच्च रूप है।
इस पथ के रास्ते में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक बीमारियों के कंकड़-पत्थर प्रारम्भिक साधना की एकी चिकित्सा रूप में स्वयं ही पथ बाहर होते चले जाते हैं।
आत्मा ब्रह्म युजित है। इसके पास चित्ति अर्थ स्तर पर अपदार्थ है। यह अपदार्थ (विज्ञान की भाषा में इसका नाम आधा अधूरा एण्टी मैटर है) आत्मा की वह चैतन्यान व्यवहार शक्ति है जिसका उपयोग कम ताप आण्विक भट्टी (९८० फै.ताप) इस शरीर को चलायमान गतिमान रखने में आत्मा करता है। इस चैतन्य व्यवहार शक्ति के उपयोग में विक्षेप मात्र, विचलन मात्र, क्षतिमात्र ही बीमारियां हैं जो विभिन्न लक्षण रूप विभिन्न स्तर उत्पन्न होते हैं। भ्रूण केन्द्र से उद्भूत वह अनाहत आधार केन्द्र है इस तन में जहां अपदार्थ से पदार्थ संसर्ग अति सूक्ष्म स्तर अतिसुमापित (मात्र बुद्धि भौतिक तुला मापित) रूप में प्रयुक्त हो जीवन की अजस्रधारा के सहस्रधारा के रूप में सतत प्रवाहित होता है। और इसी धारा से रक्ताणु विकसित, मिश्रित, संमिश्रित होते हैं। इस अपदार्थ के शक्तिकृत, तन्तुकरण संयमित, सुविकसित करने की साधना है एकी साधना तथा इसके भौतिकी उपयोग एकी चिकित्सा। विश्व की सारी चिकित्सा प्रणालियां अगर एकी में सहयोगात्मक हैं तो सार्थक हैं, अन्यथा निरर्थक हैं।
शरीर अति कम ताप आण्विक भट्ठि है। ९४.४० फैरनहाइट ताप भट्ठी। यह भट्ठी चैतन्यान जो प्रोटान ग्रेविटान से भी अतिसूक्ष्म रश्मियां हैं द्वारा शरीर में शक्ति वितरण से चलती है। कोशिका झिल्ली की पारदर्शी असंतुलित झिल्ली को दीवारों के मध्य के अद्भुत असंख्य कारखानों के शक्ति ग्रहण उत्सर्जन का खेल है शरीर। ये कारखाने भी बनते बिगड़ते हैं। नष्ट कारखानों को जल गागर, वायु सागर निष्कासित करता है। ताप के अतिरिक्त इस शरीर में और भी कई-कई सम व्यवस्थाएं हैं, स्थैर्य और संतुलन व्यवस्थाएं हैं। गंधन, चक्षुन, श्रवणन, रसन, इन व्यवस्थाओं के काम करने के भी सौम्य मापन हैं। जिनके एकक गंधांक, लक्स, डेसिबल, स्वादांक, है। लक्स चक्षुन एकक हैं, डेसिबल श्रवणन एकक है तथा स्वादांक, गंधांक स्पर्शांक ढ़ूंडे जा रहे हैं। इन पांचों की सम व्यवस्थाओं से कम विक्षेपावस्थाएं जीना मानव की देवताओं की व्यवस्था स्वस्थ रखता है तथा मानव बीमारी रहित रहता है। प्राकृतिक विक्षेप इतने क्रमशः होते हैं कि बदन उनका सहसा अहसास नहीं करता अतः वे नुकसानदेह नहीं होते हैं। इन्हें सहज सहन करना तप है।
शरीर की आदर्श स्वस्थ अवस्था समस्त पांचों की स्वस्थ देवता व्यवस्था है। यह व्यवस्था १५-२५ डेसिबल आवाज, ९८.४० फॅरनहाइट तापक्रम, १५-२५ लक्स प्रकाश, १५-२५ गंधांक गंध (होम गंध), १५-२५ स्वादांक (कंद मूल दुग्ध खाद्य) के संमिश्र से उत्पन्न होता है।
इस तक पहुंचने का पथ है पंच-एकी-साधना तथा अन्तर्शब्दन, अन्तर्ज्योतन, अन्तर्स्पर्शन, अन्तर्रसन, अन्तर्गन्धन अलग-अलग तथा संयुक्त रूपों से स्वयं स्वयं को पवित्रतम कर लेना।
एकी चिकित्सा का आधारतथ्य यह है कि एकत्वधारणा, पूर्णत्वधारणा, अति-आत्मधारणा, दिव्यधारणा, पवित्रधारणा, आनन्दधारणा या स्व के ब्रह्मविलय की धारणा सूक्ष्म गहनतम सौम्यतम धारणा है। इस धारणा के अस्तित्व में प्रवहण से क्रमशः अर्थभाव, बुद्धि, मन, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, तन, तन कार्य पथ स्तर पर परिवर्तित होते हैं जो स्वास्थ्यकर है। तन तथा इन्द्रिय, मन स्तर आण्विक संरचना परिवर्तन होते हैं जो हमें आनन्दकर, सुखद, शान्तिदायक एवं स्वास्थ्यकर होते हैं। सतत साधना से इन सकारात्मक परिवर्तनों का क्रमशः सुसंचयन अस्तित्व में बढ़ता जाता है। कालांतर में अस्तित्व में एक आनन्द तथा सुखम् का सर्वप्रकम्पनीय स्वरूप विकसित हो जाता है। इसका अनाहत से सम्बन्ध होता है। इससे अनाहत तथा अनाहत से यह उत्तरोत्तर प्रभावित होते हैं और मानव ‘‘स्व-स्थ’’ की स्वस्थ अवस्था प्राप्त करता है।
उपरोक्त अवधारणा कोई कपोलकल्पना नहीं है। इस धारणा के जिस अर्धसीमा तक विज्ञान पहुंचा है, उस सीमा तक का प्रमाण भौतिकी रूप से उपलब्ध है।
शरीर एक अतिकमताप आण्विक भट्ठी है जो सावयवी है। हमारा अस्तित्व भी परमात्म, आत्म, अर्थ, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन का सावयव है। भौतिक खोजों के अनुसार भौतिक तन कई-कई सूक्ष्म स्थल व्यवस्थाओं का सावयव है। ये सारी व्यवस्थाएं रक्त के माध्यम से अनाहत युजित हैं। अनाहत रक्तधारा का मूल स्रोत है।
हमारा अस्तित्व मूल आधार रूप में एक शक्ति ढांचे से निर्मित है। शक्ति कभी भी स्वतन्त्र रूप में निराधार नहीं रह सकती है। इस शक्ति ढांचे का नियन्ता सूक्ष्म से सूक्ष्मतम अस्तित्वित आत्मा है। यह पूरा का पूरा ढांचा विज्ञान की परिभाषा में भी खरा उतरता है।
हर गति का आधार शक्ति है। शक्ति जितनी सूक्ष्मतम होती है उतनी ही प्रभावी तथा दीर्घ होती है। मूल चार शक्तियों में सबसे कमजोर शक्ति होती है गुरुत्वाकर्षण शक्ति। इस शक्ति का मूल कण गुरुत्वान है। इस गुरुत्वान का वैज्ञानिक मापन असंभव है पर अहसास मापन, बुद्धि मापन सम्भव है। इस गुरुत्वान का प्रभाव बड़ा ही शक्तिशाली है और सबको दिखता है। यह गुरुत्वान वह कण है जो अनास्तित्वित-अस्तित्वित भौतिकी है। यह मात्र अस्तित्वित शक्तिरूपी विज्ञान की भाषा में कहा जाता है। विज्ञान इसे ‘‘वर्चुअल’’ कहता है। अद्भुत यह तथ्य है कि धर्म भी सूर्य को ‘‘सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिर्वर्चः’’ तथा ‘‘अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः’’ कहता है। यह वर्चुअल ;टपतजनंसद्ध सूक्ष्मतम शक्तिस्वरूपा अरूप (भौतिकी) इतनी शक्तिशाली है कि धरा को सहजतः अप्रयास सूर्य के इर्द-गिर्द गति देती है। यह प्रकृति स्थूल अति स्थूल रूप धर्म की भाषा में है। प्रकृतिशक्ति का सूक्ष्म सलिल रूप जिन कणों अनास्तित्वित अस्तित्वित मात्र तरंग है से बना है उनका नाम ‘‘समत्वान’’ है। इसे विज्ञान ‘एकक’ कह ;न्दपपिमक पिमसकद्ध इसकी ओर गतिशील है इस ‘एकक समत्वान’ का ‘प्रतिएकक’ है आत्मा जो इस पर अति प्रबल असंतुलन है या चैतन्यता संतुलन है। इसका प्रभाव ‘‘एकक चैतन्यान’’ है।
मानव एकक चैतन्यान के कारण अतिगुरुत्वान, अतिफोटॉन, अतिचुम्बकान, अतिविद्युतान (इलेक्ट्रॉन बड़ी स्थूल चीज है विद्युतान की तुलना में) है। अतिकमताप आण्विक भट्ठी अतिकम विद्युतान, चुम्बकान, फोटॉन, गुरुत्वान भी है। ‘अतिचुम्बकान’ के कारण आंख पर पट्टी बांध कर दिशा भ्रम किए व्यक्ति किसी स्थान की सही दिशा बता देते हैं। पर उनके सिर पर चुम्बक रख देने से वे दिग्भ्रमित हो जाते हैं ऐसा इंग्लैण्ड की मेन्चेस्टर विश्वविद्यालय के प्रयोगों में सिद्ध हो चुका है। इन प्रयोगों में विश्वविद्यालय के कुछ विद्यार्थियों को आंखों पर पट्टी बांध बस में घुमावदार रस्तों से अस्सी किलोमीटर ले जाकर विश्वविद्यालय की दिशा पूछने पर यह सिद्ध हुआ था। सिर पर चुम्बकीय प्रभाव (कृत्रिम) पैदा करने पर वे दिशा नहीं बता पाए। क्योंकि कम चुम्बक भट्ठी अतिचुम्बक से लड़खड़ा गई। जिस प्रकार कि कम ताप भट्ठी अतिताप व्यवस्था से लड़खड़ा जाती है, आहत देवता हो जाती है। शरीर के दिशा देवता चुम्बकाति प्रभाव से आहत हो जाते हैं। कुछ प्रयोगों द्वारा अनुमान लगाया गया है कि मानव में चुम्बकीय देवता का मूल निवास भृकुटि के पीछे मस्तिष्क भाग में है जहां शवों में (अति रक्ताल्पता मरीज शव छोड़) फेरिक तथा फेरस ऑक्साइड की संघनित मात्रा पाई गई।
तन शत ट्रिलियन कोषिकाओं का गतिशील महासागर है। मस्तिष्क पंचदश ट्रिलियन कोषिकाओं का तथा सहस्त्र ट्रिलियन युजन संवेदन तन्तुओं का फैला जाल है। यह संवेदन तन्तु करण मूल मस्तिष्क की पंचदश ट्रिलियन एवं तन की पच्यासी ट्रिलियन कोषिकाओं से युजित देव, प्रदेव, उपदेवादि व्यवस्था है। यह व्यवस्था रसायन शक्ति युजित है। शक्ति तन्तुकरण सबल है स्थूल पर। इससे परे प्रकम्पन तन्तुकरण है जो शक्ति (प्रायः आयन रूपी) पार सबल है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि अनुवांशिक चिह्नों, संकेतों के कारण तन कोषिकाओं की नियत अवधि है। रक्त कोषिकाएं औसतः १२०-१२५ दिवस जीती हैं। उम्र पश्चात कोषिकाएं मर जाती हैं और नई पैदा हो जाती हैं। इस मामले में मस्तिष्क तथा हृत्पिण्ड कोषिकाएं अपवाद हैं। ये अपेक्षाकृत अनाहत हैं, पर ये भी आहत होती हैं।
मस्तिष्क कोषिकाएं के आहत होने पर तन्तुकरण व्यवस्था आहत कोषिका पार तक व्यापक हो उठती है। प्रकम्पन तन्तुकरण व्यवस्था का उसे आधार रहता है जो शक्ति तन्तुकरण के माध्यम से कार्य करती है। शक्ति तन्तुकरण एवं प्रकम्पन तन्तुकरण व्यवस्था की ओर विज्ञान गति कर रहा है। अभी ये खोजें होना बाकी हैं। मस्तिष्क कोषिका ह्रास की क्षतिपूर्ति संवेदन तन्तु पूर्ति से होती है पर यह मस्तिष्क सक्रिय रखने पर आधारित व्यवस्था है।
‘‘पंच साधना’’ जिसके चरण अन्तर्स्पर्श, अन्तर्रस, अन्तर्गन्ध, अन्तर्दृश्य, अन्तर्शब्द-अन्तर्अक्षर है इस संवेदन तन्तुकरण, शक्ति तन्तुकरण, प्रकम्पन तन्तुकरण के सशक्त करने की भौतिक, मानसिक, आन्तसिक प्रक्रिया है जो पूरे के पूरे सहस्र ट्रिलियन युजन संवेदन तन्तुओं, पंचदश ट्रिलियन मस्तिष्क कोषिकाओं, पच्यासी ट्रिलियन कोषिकाओं की व्यवस्था को सशक्त करती है।
‘एकी चिकित्सा’ में ‘एकी साधना’ द्वारा ‘‘श्रोत्रं श्रोत्रम्’’ सप्त ऋषि उप साधना द्वारा ‘‘अन्तर्शब्द’’ उप साधना द्वारा तथा ‘अतिआत्म’ साधना द्वारा चुम्बकीय देवता सशक्त करने का व्यवहार विज्ञान समाविष्ट है।
हम पूर्व में बता आए हैं कि भाव (अर्थ) बुद्धि से भी सूक्ष्म है तथा बुद्धि को भी प्रभावित करते हैं। एकी साधना ब्रह्म, आत्म भाव, अमृत भाव, आनन्द भाव सम्पृक्त शुभ ही शुभ साधना है। पाणिनी ने ‘शुभ ही शुभ वाक्’ प्रस्थापना की थी। एकी साधना शुभ ही शुभ सर्व की प्रस्थापना करती है।
यदि आदमी को ‘‘ध्यायतो विषयान’’ के विचार से हटाकर ‘‘ध्यायतो ब्रह्म’’ कर दिया जाए तो सारा का सारा क्रम उलट जाता है। और मानव क्रमशः ‘ब्रह्मध्यान’ से ‘सूत्रस्य सूत्रम्’ से ‘ज्ञान’ से ‘शौर्य’ से ‘ओज’ से ‘सुस्मरण’ से ‘सुबुद्धि’ से ‘सर्वसुशान्तावस्था’ प्राप्त करता है। एकी साधना द्वारा यह सहज सुलभ है। यह एकी साधना का वैज्ञानिक आधार है। चिकित्सा विज्ञान की अधुनातन खोजें तथ्यात्मक रूप से एकी चिकित्सा को इक्कीसवीं सदी का चिकित्सा विज्ञान सिद्ध कर रही है। इन खोजों के सन्दर्भ में एकी चिकित्सा का विहंगावलोकन आवश्यक है।
‘एकी साधना’ शतप्रतिशत परिशुद्ध पवित्र साधना है। इसलिए यह तन, मन, बुद्धि, अर्थ, आत्म, परमात्म के उच्च स्तरों के आरोह-अवरोह क्रमों में ‘‘सकारात्मक परिपुष्टि’’ के माध्यम से दिव्य परिणाम देती है। मानव संसाधन के स्व-स्वास्थ्य शक्तिकरण, कार्यक्षमता विकास, दिव्यीकरण, शान्तिकरण, स्वस्थीकरण, सकारात्मक सोचयुक्त करने का सरलतम बिना बाह्य उपकरणों की सहायता के न्यूनतम मूल्य तरीका है एकी साधना से उद्भूत एकी चिकित्सा।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)