उमाजी नाइक खोमाने

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भारत के अमर क्रांतिवीरों की कड़ी के एक दैदीप्यमान नक्षत्र उमाजी नाइक खोमाने का जन्म 7 सितम्बर 1791 को महाराष्ट्र के पुणे जिले के पुरंदर तालुका के भिवाड़ी गाँव में दादाजी नाइक खोमाने और लक्ष्मीबाई खोमाने के यहाँ उस रामोशी कबीले में हुआ था, जो अपनी वीरता, गुरिल्ला युद्ध कौशल और स्वतंत्रता की भावना के लिए विख्यात था। मूलतः आंध्र के तेलंगाना से सम्बन्ध रखने वाला यह कबीला मराठों के उत्थान के समय महाराष्ट्र में आकर बस गया था और शीघ्र ही अपने युद्ध कौशल, पराक्रम और स्वामी भक्ति जैसेगुणों के चलते, मराठा शासकों की नज़रों में चढ़ गया और इस समुदाय के सेनानी उनकी सेना के अभिन्न अंग बन गए।

मराठा साम्राज्य के पतन के बाद यह समुदाय अपने को अंग्रेजों के साथ अनुकूलित नहीं कर पाया और उनसे घृणा के चलते दुर्गम क्षेत्रों में जाकर बस गया परन्तु स्वतंत्रताप्रेमी इस समुदाय के कुछ लोग अंग्रेजों की जीत और अपने मराठा शासकों की हार को भुला नहीं पाए और उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया जिसमें ये पारंगत थे। मराठा सेना का भाग रहे उमाजी नाइक इनके अगुवा थे, जिन्होंने गाँव गाँव तक अपने संदेशों के जरिये लोगो का आव्हान किया कि वो अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करें और अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराएँ। अपने अनवरत प्रयासों से उन्होंने एक छोटी सी सेना का गठन कर लिया जिसे भार और कोल्हापुर के शासकों का सहयोग प्राप्त था और पेशवाओं के समय महत्वपूर्ण पदों पर रहे कुछ प्रभावशाली ब्राहमणों से उन्हें दिशा निर्देशन प्राप्त होता था।

1828 में उन्होंने अंग्रेजी सरकार से वतन अधिकारों की मांग की और इसे पूरा ना करने की स्थिति में हजारों हजार सशस्त्र विद्रोहों की चेतावनी दी। शीघ्र ही उमाजी ने एक बड़े भू भाग पर अधिकार कर लिया और उन्हें पकड़ने के अंग्रेजों के सभी प्रयत्न असफल रहे। तब अंग्रेजी सरकार ने उन्हें पकडवाने वाले को 5000 रूपये का इनाम देने की घोषणा की और दुर्भाग्य कि इस इनाम और चार गाँवों के लालच में उनकी अपनी ही बहन ने उन्हें अंग्रेजों के हाथों पकडवा दिया। पहले से रचे गए षड़यंत्र के तहत उसने उमाजी को खाने के लिए घर बुलाया और पहले से वहां छिपे अंग्रेजी सिपाहियों ने उन्हें दबोच लिया। हालांकि उमाजी ने स्वयं को बचाने का भरसक प्रयास किया परन्तु एक बड़े पुलिस बल के आगे उन्हें परास्त होना पड़ा।

3 फरवरी 1832 में 40 वर्ष की आयु में उन्हें पुणे में फांसी दे दी गयी और उस प्रकार क्रान्तिपथ का ये राही क्रांति की बलिवेदी पर बलिदान हो गया। हमें ये याद रखना होगा कि उमाजी कोई डकैत या हत्यारे नहीं थे जैसा कि अंग्रेज और उनका अन्धानुकरण करने वाले भारतीय इतिहासकारों ने जतलाने की कोशिश की है, बल्कि वो स्वतंत्रता के आन्दोलन के प्रारम्भिक सेनानियों में से एक हैं। शिवाजी को अपना आदर्श मानने वाले उमाजी नाईक की वीरता, युद्धकौशल और गुरिल्ला युद्ध पद्धति में निपुणता को देखते हुए बाम्बे गजेटियर ने उन्हें द्वितीय शिवाजी कह कर संबोधित किया और वे महाराष्ट्र के एक बड़े क्षेत्र की लोककथाओं के नायक बन गए। उनकी राबिनहुड शैली लेखकों और फिल्मकारों को हमेशा ही अपनी तरफ खीचती रही और उन पर अनेकों पुस्तकें रची गयी और अनेकों फ़िल्में बनायीं गयी। शत शत नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।

~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी

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