उठो दयानन्द के सिपाहियों…

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उठो दयानन्द के सिपाहियों समय पुकार रहा है।
देश द्रोह का विषधर फन फैला फुँकार रहा है।। टेक।।

उठो विश्व की सूनी आँखे काजल मांग रही हैं।
उठो अनेकों द्रुपद सुताएँ आँचल माँग रही हैं।।
मरघट को पनघट सा कर दो जग की प्यास बुझा दो।
भटक रहे जो मरुस्थलों में उनको राह दिखा दो।।
गले लगा लो उनको जिनको जग दुत्कार रहा है।। 1।।

तुम चाहो तो पत्थर को भी मोम बना सकते हो।
तुम चाहो तो खारे जल को सोम बना सकते हो।।
तुम चाहो तो बंजर में भी बाग लगा सकते हो।
तुम चाहो तो पानी में भी आग लगा सकते हो।।
जातिवाद जग की नस नस में जहर उतार रहा है।। 2।।

याद करों क्यों भूल गए जो ऋषि को वचन दिया था।
शायद वायदा याद नहीं जो आपने कभी किया था।
वचन दिया था ओम् पताका कभी न झुकने देंगे।
हवन कुण्ड की अग्नि घरों से कभी न बुझने देंगे।
लहू शहीदों का गद्दारों को धिक्कार रहा है।। 3।।

कब तक आँख बचा पाओगे आग बहुत फैली है।
उजली उजली दिखने वाली हर चादर मैली है।
लेखराम का लहू पुकारे आँख जरा तो खोलो।
एक बार मिलकर सारे ऋषि दयानन्द की जय बोलो।
वेदज्ञान का व्यथित सूर्य तुम्हें निहार रहा है।। 4।।

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