ईश्वर और वेद

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मंच पर आसीन आदरणीय महानुभावों एवं मान्यवर श्रोताओं तथा प्यारे मित्रों आज मैं आप के समक्ष ईश्वर और वेद के विषय में अपने कुछ विचार रखना चाहता हूँ।

जो व्यक्ति ईश्वर को ठीक से नहीं जानता, नहीं मानता और उसका ध्यान नहीं करता है उसे नास्तिक कहते हैं। ईश्वर को न मानना ही मनुष्य के समस्त दुःखों का कारण है। जड़ और चेतन में अन्तर को हमें जानना चाहिए.. 1. जड़ में इच्छा नहीं होती है, चेतन में होती है। 2. सुख आदि की अनुभूति जड़ को नहीं होती है, चेतन को होती है। 3. परिवर्तन सड़ना, गलना जड़ में होता है, चेतन में नहीं। 4. जड़ में ज्ञान नहीं होता है, चेतन में होता है। 5. जड़ में लंबाई, चौडाई, रूप रंग होते हैं, चेतन निराकार होता है। पत्थर, लकड़ी, लोहा, अग्नि, वायु, कार, कम्प्यूटर, मोबाइल मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के शरीर आदि सभी स्थूल पदार्थ एवं मन बुद्धि इन्द्रियां आदि सूक्ष्म पदार्थ जड़ की श्रेणी में आते हैं, जबकि चेतन मात्र दो हैं- आत्मा और परमात्मा।

ईश्वर सर्वव्यापक है। ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ पर ईश्वर न हो। एक शंका यह हो सकती है कि यदि ईश्वर सब जगह है तो वह दिखाई क्यों नहीं देता है ? इसका उत्तर है वह निराकार होने के कारण दिखाई नही देता है। इसी प्रकार आत्मा भी निराकार ही है।

कर्मों के अनुसार फल देने को न्याय कहते हैं। बुरे कर्मों का फल ईश्वरीय व्यवस्था में माफ नहीं होता है। एक बार अपराध कर लेने पर उस कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। अतः दण्ड से बचने के लिए पूजा, प्रार्थना, यज्ञ, करना व्यर्थ है। पूजा, प्रार्थना, यज्ञादि का फल अन्य ही है, इसलिए अवश्य करना चाहिए।

दूसरों के दुःखों को दूर करने की इच्छा को दया कहते हैं। यदि कोई कहे कि ईश्वर दयालु है तो हमारे पापों को क्षमा क्यों नहीं करता ? इसका उत्तर है कि पाप क्षमा होने से सुधार नहीं होता बल्कि व्यक्ति पहले से और अधिक पाप करने लग जाता है। ईश्वर की इच्छा है कि हमारा सुधार हो। जिससे हम भविष्य में बुरे कर्म न करें । इसलिए ईश्वर हमारे पापों को क्षमा नही करता है।

ईश्वर सर्वशक्तिमान है, जो अपने किसी भी कार्य को करने में दूसरों की सहायता नही लेता उसे सर्वशक्तिमान् कहते हैं। हम जीव इसलिए अल्पशक्तिमान हैं क्योंकि बिना शरीर आदि साधनों के केवल अपनी शक्ति से हम कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं।

ईश्वर ने इस संसार को हमारे सुख, कल्याण, और शान्ति के लिए बनाया है। एक प्रश्न यह हो सकता है कि ईश्वर निराकार है तो बिना हाथ-पैर के संसार को कैसे बना लेता है ? जैसे चुम्बक बिना हाथ के लोहे को खींच लेता है, सूर्य की किरणें जिस प्रकार बिना पैर के गति करती हैं, वैसे ईश्वर भी अपने अनन्त शक्ति सामर्थ्य से बिना हाथ-पैर के ही संसार की रचना कर लेता है। हमें ईश्वर से विद्या, बल, बुद्धि, शक्ति और समृद्धि मांगना चाहिए। केवल प्रार्थना करने से कुछ प्राप्त नहीं होता। प्रार्थना के साथ पूर्ण पुरुषार्थ करना चाहिए। उपासना शब्द का अर्थ है मन से शुद्ध होकर ईश्वर के गुणों की अनुभूति करना। उपासना करने से हमारा आत्मिक बल बढता है, दुःख दूर होते हैं, विद्या, बल, और आनन्द की प्राप्ति होती है।

ईश्वर अवतार नहीं लेता है। ईश्वर का अवतार मानने में कई दोष हैं जैसे- 1) अवतार लेने से ईश्वर में सर्वज्ञत्व, सर्वव्यापकत्व एवं सर्वशक्तिमत्व आदि गुण नहीं रह जाएंगे। 2) सृष्टि का कर्ता, धर्ता और संहर्ता ये गुण भी अवतारी ईश्वर में नहीं रह जाएंगे। 3) जन्म लेने से एकदेशी होने के कारण जीवों के कर्मों का द्रष्टा तथा कर्मफलदाता आदि नहीं हो सकता। 4) जन्म लेने से ईश्वर सुख-दुःख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी एवं क्लेशयुक्त होगा, जोकि ईश्वर के स्वभाव से विपरीत है।

आत्मा और परमात्मा एक नहीं है। हम अपनी इच्छा से ही कर्म करते हैं, परमात्मा की इच्छा से नहीं। हम परमात्मा की इच्छा से ही कर्म करना मानेंगे तो संसार में बुराई नहीं रहनी चाहिए। क्योंकि ईश्वर की इच्छा कभी बुरी नहीं हो सकती है। ईश्वर हमारा पालक, रक्षक, बन्धु, गुरु, आचार्य, स्वामी, राजा और न्यायाधीश आदि अनेकों सम्बन्ध हैं।

हमारे मूल धर्मिक ग्रन्थ चार वेद हैं। 1) ऋग्वेद, 2) यजुर्वेद, 3) सामवेद, 4) अथर्ववेद। ईश्वर के उपदेश को वेद कहते हैं। अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा इन चार ऋषियों के माध्यम से वेद का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में मानवमात्र को मिला है। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने से इसमें सब सत्य विद्याएं हैं, इसलिए हमें वेद को मानना चाहिए। वेद संस्कृत भाषा में हैं। वेद ऋषियों ने नहीं लिखे हैं। सभी मनुष्यों को वेद पढ़ने का अधिकार है। जब तक आर्यावर्त में वेद के पठन-पाठन का प्रचलन रहा हमारा देश विश्वश्रेष्ठ, विश्वसमृद्ध और विश्वगुरु रहा। आदि सृष्टि से महाभारत काल पर्यंत आर्यों का चक्रवर्ति साम्राज्य समूचे विश्व पर रहा है। आधुनिक काल में लुप्त हुई वैदिक परम्पराओं को महर्षि दयानन्द ने भारत में पुनरुज्जीवित किया। उन्होंने वेदों की और लौटो का नारा दिया..!! आइए ऋषि दयानन्द के सपनों का वैदिक समाजवाद स्थापित करते भारत को पुनः एकबार विश्वश्रेष्ठ बनाने में अपना भी योगदान दें।

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