आइडेंटिटी का नाम ‘‘अस्तित्व पहचान’’है । ‘‘अस्तित्व पहचान’’का सटीक होना राष्ट्र, उद्योग, समाज, परिवार आदि की उन्नति के लिए आवश्यक है । ‘‘अस्तित्व पहचान संकट’’(आइडेंटिटी क्राइसिस) पैदा हो जाने पर परिवार, समाज, उद्योग, राष्ट्र, विश्व विनाश के कगार पर पहुँच जाते हैं । ‘‘अस्तित्व पहचान’’के कई कई संदर्भ हैं तथा ब्रह्मांड, सवत्सर, काल, धरा, राष्ट्र, उद्योग, समाज, परिवार, व्यक्ति विशेष। इन संदर्भ विशेष में सामंजस्य रखने वाली व्यवस्था करना या ऐसा एक ग्रंथ रचना आज के युग में बिना किसी बाह्य साधन के हिमालय की एवरेस्ट की चोटी चढ़ना जैसा है । वर्तमान विश्व में इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है । परिणामतः विश्व में ‘‘अस्तित्व पहचान संकट’’बढ़ता चला जा रहा है । देश, काल, परिस्थिति, संदर्भ, स्थिति के संपूर्ण आयामों को ध्यान में रखते भूमिका का सटीक निर्वाह ‘‘अस्तित्व पहचान’’है । ‘वर्तमान युग’में भयानक सूचना विस्फोटों के कारण ज्ञान टुकड़े-टुकड़े होकर इतर छितर गया है और सूचनाओं को ही ज्ञान मान अस्तित्व पहचान संकट में अभिवृद्धि की जा रही है ।
मानव का टुकड़ा सूचनाओं, टुकड़े-टुकड़े ज्ञान ने तथा ज्ञान के बाह्य पुस्तकों कम्पयूटरों आदि पर उतर उतर आदमी से बाहर होते जाने तथा मानव के मशीन नियंत्रण में चले जाने के कारण वर्तमान युग ने अति छोटा कर दिया है । यास्क बेअर्थ ज्ञान के वहन करने वाले को पुस्तक लदा खंबा कहता है । अगर एक मानव ने सारे वेद कंठस्थ कर लिये हैं और उनके अर्थ तथा व्यावहारिक उपयोग नहीं जानता है तो वह पुस्तक लदा गधा नहीं पुस्तक लदा जड़ खम्भा है । वर्तमान मानव की कई कई क्षेत्रों में स्थिति इससे बदतर है कि मानव ने ज्ञान नहीं सूचनाओं से परम् 10,000 अर्थात सुपर कम्प्यूटर को लाद लिया है जो एक सेंकैंड में सौ बिलियन गणनाएं कर सकता है । वेद लदे खम्भे मानव से कम्प्यूटर के खम्भे से लटका छोटा मानव कितना दयनीय है – उसे कितना अस्तित्व पहचान संकट है यह कल्पना की जा सकती है । शतवर्षीय मानव उन ग्रहों आकाश गंगाओं की खोज में पागल हुआ जा रहा है जिनका प्रकाश करोड़ों वर्षों बाद हम तक पहुंच रहा है । इतना बड़ा अतीत सूचना बोझ उठाने में शत वर्षीय जीवन बर्बाद कर लेना आधुनिक अस्तित्व पहचान संकट ग्रस्त युग अधिक समझा जाता है ।
विश्व मानव की औसत उम्र करीब पचपन वर्ष है । जापान आदि कुछ राष्ट्र पच्चीस वर्षों बाद नब्बे की औसत उम्र प्राप्त कर लेंगे । पचपन वर्षीय मानव का अपने पचपन वर्षों की सुसंगत, सुव्यवस्थित, उत्तम श्रेष्ठ करने के स्थान पर करोड़ों वर्ष अतीत के किन्हीं डायनोसार के जीवाश्मों पर काल्पनिक हवाई सूचनाओं के अम्बारों को इकट्ठा कर चमत्कृत होने का अस्तित्व पहचान संकट भयानक सा लगता है ।
हम सुपर कम्प्यूटर, सूचनाओं आदि के खिलाफ नहीं है पर ज्ञान, सूचना, कम्प्यूटर, जीवन आदि के मध्य नासमझीपूर्ण असामंजस्य की ओर ध्यानाकर्षित करना चाहते हैं । ज्ञान, सूचना, जीवन, समय में असामंजस्य ही तो अस्तित्व पहचान संकट है । जड़ जड़ है, चैतन्य चैतन्य है । जड़ के द्वारा चैतन्य उपयोगित होता इससे आदमी घटिया होता चला जाता है इतनी समझ चैतन्य को होनी चाहिए । हर आदमी बहुआयामी होता है तथा उसकी कई-कई भूमिकाएं होती हैं जो समय के अनुसार बदलती रहती हैं ।
एक आदमी एक नदी में दो बार नहीं नहा सकता है बड़ा ही महत्वपूर्ण तथ्य है । आदमी इतना अधिक परिस्थितियों कें संदर्भ में परिवर्तनशील है कि वह हर क्षण नवीन (कम या ज्यादा) होता ही रहता है । अतः दो समय एक ही नहीं रह सकता है । उच्च कोटि के योगी तथा साधक भर इस क्षेत्र में अपवाद होते हैं । क्येांकि
एक आदमी एक नदी में दो बार नहीं नहा सकता है । इसलिए उसे अधिक अस्तित्व पहचान संकट का सामना करना पड़ता है ।
परिवर्तन प्रबंधन दक्ष आदमी ‘‘अस्तित्व पहचान’’संकट से कम प्रभावित होता है । परिवर्तन मानव की अस्तित्व पहचान है इसलिए मानव को परिवर्तन प्रबंधन की सुव्यवस्था करनी चाहिए । पशु या मानव अतिरिक्त प्राणी जगत परिवर्तन प्रबंधन अति सीमित मात्रा में करता है । वहां अस्तित्व पहचान संकट नहीं है क्येांकि अस्तित्व भान ही नहीं है । एक उदाहरण से इसे स्पष्ट करें ।
मकड़ी विश्व की अति श्रेष्ठ अभियंता है । ऊँचाई पर काम करने की, सुरक्षापूर्वक काम करने की जितनी दक्षता मकड़ी में है उतनी दक्षता विश्व के सारे सुरक्षा अभियंता मिलकर कर भी कभी आदमी को न दे सकेंगे। मानव सुरक्षा बेल्ट और कृत्रिम नेट व्यवस्था में आदमी नेट लगाते, बेल्ट बांधते, चढ़ते उतरते टपक कर प्राण गंवा देता है पर विश्व की एक भी मकड़ी स्वतः ही स्वतः ऊँचाई पर काम करते कभी नहीं टपकी और न टपकेगी । चाहे उसके टपकने पर भी उसकी लचकदार बचत व्यवस्था है कि उसे कोई चोट न लगे । अद्भुत अभियंताएं भरी हैं मकड़ी में ‘पश्य देवस्य काव्य’है यह व्यवस्था ।
मकड़ी की शारीरिक संरचना अद्भुत है । इसकी आठ आँखें हैं । ऑलपिन के बराबर मस्तिष्क है । लचीले पर हैं । इसके तन में ‘तन्तुम तन्वम्’की व्यवस्था है । ‘तन्तुम तन्वम्’एक अदभुत कारखाना है । जिसमें सात ग्रन्थियाँ हैं । प्रति ग्रन्थि नलिका होती है ऊँगली के समान इस नलिका में सौ छिद्र होते हैं – उन छिद्रों से एक चिपचिपी लस निकलती है जो हवा संपर्क से सूक्ष्मतम् तार में बदल जाती है । ऐसे छह सौ तार मिलकर एक तार बनाते हैं । जिनका व्यास एक इंच से पन्द्रह से बीस हजारवें भाग जितना होता है । ऐसे चालीस लाख तार मिलकर दाढ़ी के एक बाल जितने मोटे होते हैं । यह देवस्य काव्य है जो जीर्ण-शीर्ण नहीं होता । इस एक तार को मकड़ी किनारे चिपचिपा पदार्थ लगा हवा में तैराती है । यह तार कहीं चिपक कर पुल बनाता है । यह लचक पुल है इसे तीन चार गुना लम्बा खींचा जा सकता है । इस झूलन लचक पुल पर दौड़ती मकड़ी इसके मध्य बिन्दु से नीचे दिये चित्रानुसार क्रमबद्ध सुव्यवस्थित जाला बुनती है जो इन्जीनीयरिंग का कमाल है । मकड़ी जाला बुनते समय तार को पांव से ऐसे पकड़ती है कि कोई तार उलझता नहीं है । यह कौशल मकड़ी का दो अरब वर्ष पुराना है और आज भी वैसा का वैसा ही है । मानवकृत भयावह प्रदूषण के सीमित हªास प्रभाव छोड़ वैसा का वैसा है । यह मकड़ी का ब्रह्मा जाल है इस जाल के किनारे से रात्रिकाल मकड़ी चिपचिपे पदार्थ को पूरे जाल पर फैलाती है तथा चिपचिपा पदार्थ गोला बनाकर शस्त्रवत् प्रयोग कर उड़ते कीड़े के निकट कीड़े आहार हेतू पकड़ती है । पर शक्तिशाली कीड़े, छिपकली आदि जाले आदि को ध्वस्त कर देते हैं तथा दो अरब वर्ष से ऐसे जाले ध्वस्त करते आ रहे हैं । पर मकड़ी यह निर्णय नहीं ले पाई, न ले पायेगी कि जाले के तारों को मोटा कर बड़े कीड़ों को भी फंसा ले। अगर मनुष्य मकड़ी होता तो वह जो गृहणि उसका जाला तोड़ती उसके इर्द गिर्द रात को जाला बनाकर (जो स्टील से मजबूत है) बिस्तर से उठने के ही नाकाबिल कर देता । मनुष्य में निर्णय क्षमता है, छिपकली में नहीं है । मनुष्य मकड़ी होता तो जाले को कई कई बार मजबूत बनाकर उसकी शक्ति बढ़ा लेता और बड़े-बड़े शिकार कर लेता । इसीलिए मनुष्य कर्म-भोग योनि है । मकड़ी भोग योनि । कर्मयोग योनि होने के कारण परिवर्तनों में मनुष्य स्वतंत्र निर्णय लेता है जबकि पशु जगत नहीं । परिवर्तन प्रबंधन में मनुष्य के श्रेष्ठ निर्णय उसे अस्तित्व पहचान देते हैं और निम्न निर्णय अस्तित्व पहचान संकट ।
कई परिवर्तन मनुष्य भी आयोजित करता है स्वयं अपने लिए । परिवर्तन तीन तरह के होते हैं । भौतिकी, आत्मिकी और सामाजीकीय । उनके दो स्वरूप हैं । एक स्वयं मनुष्यकृत अन्य कृत । दूसरा स्वंकृत परिवर्तन प्रबंधन क्षेत्र में यदि मनुष्य लकीर का फकीर होने से पहले श्रेष्ठ कदम उठाकर आगे बढ़ लेता है। ऐसा परिवर्तन करता है तो उसे अस्तित्व पहचान संकट नहीं है । यदि वह पूर्व में ही अधिक श्रेष्ठ निर्णय ले चुका है तो उस पर दृढ़ रहने से भी अस्तित्व पहचान संकट पैदा नहीं होता है । स्पष्ट है परिवर्तन के तीन रूप हो सकते हैं । 1. श्रेष्ठ, 2. मध्यम, 3. अधम ।
भौतिकी क्षेत्र में श्रेष्ठ कदम वे हैं जो प्राकृतिक ऋत नियमों के अनुकूल हैं । आत्मिकी एवं सामाजिक क्षेत्र में वे श्रेष्ठ कदम हैं जो शृत नियमों के अनुकूल हैं । मध्यम परिवर्तन व्यवहारपरक होते हैं । जिनका विवरण प्रायः शृत नियमों में नहीं होता है । अधम परिवर्तन ऋत तथा शृत नियमों के विपरीत होते हैं । शृत अस्तित्व पहचान कायम रखने के उत्तर आधार वेद में दिये गये हैं । 1. बृहत सत्यं, 2. बृहत ऋत, 3. दीक्षा = शिव संकल्प व्रताचार, 4. तप = द्वन्द सहन, 5. श्रम, 6. विवेक, 7. त्यागन 8. लक्ष्यन, 9. संगठन । ये हमारी भूत तथा भविष्य की धरा को ओज-पूर्ण विस्तृत करते हैं । (अर्थवेद 12.1.1) जिसकी भूत धरा, वर्तमान धरा और भविष्य धरा ओज पूर्ण है । ऋत श्रृत नियमों, श्रम, तप तथा योग से या विवेक, कर्म, योग से वे अस्तित्व पहचान युक्त होते हैं । उच्च धरातल से ही सच्ची अस्तित्व पहचान कायम रहती है।
परिवर्तन प्रबंधन के लिए एक महत्वपूर्ण तथ्य है अधिकार सीमा । मानव अधिकार सीमा के बाहर परिवर्तन के भौतिक प्रयास अस्तित्व पहचान संकट पैदा करते हैं । अधिकार सीमा के बाहर नियमित या अनियमित दोनों तरह के परिवर्तन करना दीर्घकालीन कार्य हैं । ये विचार के शक्तिशाली साधन से किये जा सकते हैें । जिन्ना के अनियमित विचार बीज से पाकिस्तान का जन्म हुआ । रूस के सामाजिक समझौता सिद्धांत से प्रजातन्त्र के अनियमित का विकास हुआ । ‘प्रजातन्त्र’से ‘प्रजातन्त्र’विस्थापित होगा ही पर यह दीर्घकालीन परिवर्तन है । अति दीर्घकालीन परिवर्तन विचारकों को मृत्यु पश्चात अस्तित्व पहचान देते हैं । अधिकार सीमा के बाहर लिया गया व्यावहारिक नियम अवैध शून्य निरस्त होता है । इस महत्वपूर्ण तथ्य को भूलने के कारण अनेक लोग अस्तित्व पहचान संकट के दलदल में फंस जाते हैं ।
अधिकार सीमा के बाहर लिये जाने वाले निर्णयों के भी दो प्रकार होते हैं । 1. नियमानुकूल 2. नियम विरुद्ध । इन पर दो प्रतिक्रियाएं उच्च प्रशासन से मिल सकती हैं । 1. समर्थन 2. विरोध इससे निम्नलिखित स्थितियां पैदा होती हैं । 1. नियमाकूल समर्थन – द्विअस्तित्व पहचान श्रेष्ठ अवस्था । 2. नियमानुकूल विरोध: द्वि अस्तित्व पहचान संकट – कार्य हªास – उत्पादकता हªास 3. नियम विरुद्ध समर्थनः – कार्य हªास – घोर अनुशासन हीनता वृत्ति 4. नियमं विरुद्ध – विरोधः- नियम स्थापना उत्पादकता वृद्धि। कई भद्र पुरुष इसलिए संकट में पड़ते हैं (अस्तित्व पहचान संकट में नहीं) कि वे अधिकार सीमा के बाहर नियमानुकूल निर्णय पर विरोध की अवस्था में अति संघर्ष का रास्ता अपना लेते हैं । ऐसे व्यक्तियों को विचार के शक्तिशाली साधन को अपना कर दीर्घकालीन परिवर्तन पथ अपनाना चाहिए । व्यवहारिक सफल आदमी या तो ऐसा होना चाहते हैं अधिकार सीमा के बाहर न उचित न अनुचित अवस्था में पड़ते हैंे । तटस्थ शांत रहते हैं अपने अधिकार क्षेत्र में नियमानुकूल दृढ़ होते हैं । वर्तमान पदोन्नति व्यवस्था में ऐसे व्यक्ति उच्च पदों पर पहंुचते जाते हैं । वर्तमान में व्यवस्था में वह सफलतम पदाधिकारी हैं जो उच्चाधिकारी क्षेत्र में अनुचित उचित दोनों का समर्थन करता है तथा उसे ही नीचे लागू करता है इस प्रबंधन का नाम झूठन प्रबंधन है जो राजनीति पंजातंत्री व्यवस्था की उपज है । जिसमें अयोग्य व्यक्ति प्रजातंत्रा के कारण प्रधानमंत्री के उन अधिकारों से लाद दिया जाता है जिससे सारे मंत्री कठपुतलियों की तरह विभिन्न विभागों में नाचते हैं और सारी सीटियां सारे डायलॉग प्रधानमंत्री बोलता है ।
‘भिखारी’का अस्तित्व हीं नहीं होता । अतः उसे ‘‘अस्तित्व पहचान संकट’’भी नहीं होता । प्रबंधन व्यवस्था में एक बड़ा वर्ग भिखारी वर्ग होता है । यह वर्ग इस बात में विश्वास रखता है कि
अजगर करे ना चाकरी पंछी करे न काम ।
दास मलूक कह गये सबके दाता राम ।।
ऐसा वर्ग ‘‘सरकार’’को ‘राम’मानकर चलता है और ‘राम-हराम’करते जिन्दगी बिता देता है । ऐसे व्यक्ति दूर से ही पहचान लिये जाते हैं । कभी कभी कोई ‘राम-हरामी’बड़ा ही चालू निकल जाता है । तो वह अपने मातहत दक्षों को रखकर निहित स्वार्थ निर्णयों को अपने हाथ रखता है और समाज क्षेत्र में फटाके फोड़ता रहता है । ऐसे निर्णय सभ्य ‘राम-हरामी’पदोन्नति पाने के नये आयाम गढ़ते हैं । भगवती की ‘खानदानी हरामजादे’कहानी में इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । नियमबद्ध व्यवस्था में ‘राम-हरामी’को बुरी तरह से ‘‘अस्तित्व पहचान संकट’’भोगना पड़ता है । पर नियमहीन व्यवस्था में या प्रजातन्त्र व्यवस्था में वह खूब फलता फूलता है तथा नियम-हरामीपन फैलाता रहता है ।
‘भीख कभी खुदा से भी न मांगी,
तुम तो हो अदने से आदमी ।’
जो व्यक्ति ऐसा कर सकता है व्यवस्था को, वह व्यक्ति कभी ‘‘अस्तित्व पहचान सकंट’’में नहीं पड़ सकता। उसकी रीढ है अस्तित्व पहचान । ऐसा व्यक्ति हजारों में एक पहचाना जा सकता है । आरम्भ में ऐसे व्यक्ति को व्यवस्था प्रताड़ित करती है । मध्य में उसकी उपेक्षा करने लगती है पर वह व्यक्ति अपनी अस्तित्व पहचान अगर कायम रख सकता है तो व्यवस्था अपने समानांतर उसका अस्तित्व स्वीकार कर लेती है । ऐसा व्यक्ति वर्तमान व्यवस्था में पदोन्नति नहीं पाता है । वह हमेशा ही अति कार्य क्षमता स्तर कार्य करता है । ऐसा व्यक्ति ‘आराम हराम होता है’ तथा जितना सरकार (राम) से पाता है उससे ज्यादा सरकार को देता है । वह ‘अनियम-हरामी’होता है । अनियमों को जो हराम या पाप समझता है वह है अनियम हरामी । नियमों को जो पुण्य समझता है वह है ‘नियम-पुण्यी’। ‘अनियम हरामियों’या नियम पुणियों के आधार पर ही व्यवस्था के व्यवस्था तत्त्व बचे रहते हैं।
एक भयावह ‘‘अस्तित्व पहचान संकट’’श्रेणी जो प्रबन्ध व्यवस्था में मिलती है वह है ‘‘रीढ़ टूट’’व्यक्तियों की । ऐसे व्यक्ति ‘‘अस्तित्व पहचान’’की रीढ से अपना कार्य प्रारंभ करते हैं । धोखे से सद उच्च प्रबंधन या आरंभिक अवस्था पदोन्नति सोपान चढ़ते हैं । एक स्थिति में उपेक्षित कर दिये जाते हैं तथा तब रीढ़ टूट हो जाते हैं । मैंने अपने जीवन में ऐसे दुहरे व्यक्तियों कें अंतर्गत दोनों समय कार्य किया है । ऐसे ‘रीढ टूट’व्यक्ति इतने लिजलिजे पिलपिले हो जाते हैं कि ‘राम हरामी’या ‘नियम हरामी’उसका आसानी से शिकार कर लेते हैं और ‘रीढ़ टूट’घोर अस्तित्व पहचान संकट में पड़ जाते हैं ।
चार तरह की व्यवस्थाएं होती हैं
1. राजहंस व्यवस्था 2. चील व्यवस्था 3. कछुआ व्यवस्था कबूतर व्यवस्था या शतुर्मुग व्यवस्था राजहंस व्यवस्था नीर क्षीर विवेकाधारित विहंगम दृष्टि होती सर्वस्थलीय उदात्त शुभ भरी दीर्घकालीन स्थायी लाभप्रद होती है । इसके कुछ तत्व इस प्रकार हैं, 1. ऋत शृत 2. श्रम तप, 3. श्री यश, 4. सत्य शाश्वत 5. न्याय दर्शन अनुरूप, 6. व्यवस्था में सर्वव्यापक 7. कर्तव्य अधिकार समान्वित 8. पद- अनुभव समन्वित मात्र। राजहंस वत श्वेत धवल पंख बड़े, सुन्दर चोंच, ठहरी ठहरी सहज गति, सुडौल पंख फैलाकर धरा उतरती, आकाश तथा धरा भली, लम्बे लम्बे सधे सधे डग भरती बढ़ती है राजहंस संस्कृति । इस संस्कृति प्रबंधन में ‘‘अस्तित्व पहचान संकट’’नहीं होता है । प्रशासन में अनुशासन का सारेगमपधनी अभ्यास से शास्त्री, सुगम, सहज, उदात, संगीतमय मधुर कर्मों का सहज राग बजता हो जहां वहां है राजहंस संस्कृति । विनोबा भावे के समय में पवनार आश्रम प्रबंधन व्यवस्था राजहंस संस्कृति थी । आकर रुकते महमान भी पहले ही दिन से सहजतः संस्कृति में घुल-मिल जाते थे । जहां सफाई, कृषि, सब्जी काटना, प्रेस का कार्य करते, हर व्यक्ति वेदभावों की उपनिषदी चर्चा करते हों हर कार्य सहज अनुशासनबद्ध सारेगामपधनी करते हों, जहां संग्रहध्वं में संवहयम हो, जहां इशामवास्यमिदं उपनिषद, गीता के स्थितिप्रज्ञ पुरुष, सहस्त्रनाम से दिवसारंभ दिवसांत हो, जहां वस्त्र आदमी को न पहनते हों, जहां खाना आदमियों को न खाता हो, जहां पेय आदमी को न पीते हों, वहां होती है राजहंस संस्कृति ।
मेरे जीवन के पहले वर्ष राजहंस कार्यों में मेरे मातहत मैंने राजहंस संस्कृति पनपाने की कोशिश की थी और उसमें पौनांश से अधिक सफल रहा था । श्री जी.सी. राघवन के अंतर्गत डिजाईन ब्यूरो में आरंभिक एक वर्ष राजहंस कार्य संस्कृतिवत प्रबंधन था । ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ श्री विश्वनाथन के अंतर्गत भी अनुशासनबद्ध कार्य में राजहंस संस्कृति का आधार था । राजहंस संस्कृति असंभव नहीं है । आर्य कुमार सभा ने एक वर्ष भिलाई में राजहंस सांस्कृतिक प्रबंधन आधार पर कार्य किया । गहन धैर्य का उपेक्षाकृत कम तथा अधविश्वासी स्वरूप होने पर भी प्रजापिता ब्रह्म कुमारी संस्थान के आबू आश्रम में आज भी राजहंस संस्कृति प्रबंधन का सशक्त आधार है । पड़ीगांव में मेरा चार दिवसीय निवास और गांव के समस्त बच्चों से संबंध तथा मैं और बच्चे राजहंस सांस्कृतिक प्रबन्धन जुड़े हुए थे । राजहंस संस्कृति में अस्तित्व पहचान तत्व सशक्त होता है उससे अस्तित्व पहचान संकट का प्रवेश होना ही मुश्किल होता है ।
राजहंस परिवार प्रबधंन के तत्व अन्य उद्योगों में समाजों में भी लागू किये जा सकते हैं । यह तत्व हस प्रकार हैं:
1. माता विभुत्व 2. पिता प्रभुत्व 3. आशुगामी – गतिशील 4. हयः (कृपयायी)
विभुत्व है ज्योति प्रकाश ममता वात्सल्य का । सहकर्मी के कंधे पर अपनता भरा हाथ रख देना विभुज है। मां का ममता से सिर पर हाथ फेर केश सहला देना वह विभुत्व है कि बच्चा तत्काल समर्पण कर देता है । मुझे स्मरण है कि तब मैंने उसी दिन पी.एच.डी. होने की खबर पाई थी – मेरे अनुशंसक के खबर एक प्रबंध निदेशक श्री संगमेश्वरन को दी थी । संगमेश्वरन मेरे पास आए, मेरे दोनों कंधों पर अपने हाथ रखकर बोले – मैं तुम पर गर्वित हूँ यह विभुत्व था ।
ई. डी. वकर््स थे – पी.एच.डी. पहली बार मुझे उन्होंने देखा मैं शायद एस.ई. था । उस समय सारी भीड़ छोड़ मेरे पास आये । मेरे गले में हाथ डाल बोले ‘अरे यार अपना क्षत्रिय पी.एच.डी. हो गया ।’विभुत्व प्रबंधन तत्व प्रबंधन है ।
इसका एक दूसरा रूप भी है । मैं तब सहायक अभियंता था । एक नये विभाग का प्रमुख बना दिया गया था । मेरे अंतर्गत एक श्री कुलकर्णी थे तिरपन वर्षीय । मैं था पच्चीस वर्षीय । उन्होंने मेरे कक्ष में आकर कहा प्रणाम सर । मैंने तत्काल उठकर उनके चरण छुए । कहा आप मेरे बुजुर्ग हैं । मुझे सर नहीं क्षत्रिय या ‘त्रिलोकी’कहेंगे । इस एक विभुत्व बात इल्मे मुहब्बत – मेरा दस सदस्यीय वह विभाग सगहध्वं, रहा।
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय ।
टूटे पिफर ना जुड़े, जुड़े तो गांठ पड़ जाय ।।
‘‘विभुत्व प्रबंधन’’गांठ रहितता में आस्था का नाम दें ।
प्रमुख: ‘‘बुद्धि का सच है हकीकत’’
हकीकत समझ तत्काल निर्णय तथा सटीक निर्णय तथा निर्णय क्रियान्वयन में वरिष्ठता सहयोग प्रभुत्व प्रबंधन तत्व के भाग हैं ।
तब जी.सी. राघवन विभाग प्रमुख थे । राजहंस जल प्रदाय योजना का तकनीकी भाग में पूरा कर चुका था । स्थान परिवर्तन भी सहसा हुआ था । राजहंस ट्रीटमेंट प्लाट पुराने ट्रीटमेंट प्लांट के निकट प्रस्तावित था । उसका आधार अभिकम्पन तैयार हो चुका – डा. श्री राघवन, श्री रानाडे, तथा श्री खारकर, गेस्ट हाऊस में भोजन करके ऊपर छत पर चर्चा कर रहे थे । अचानक मैंने कहा सोचता हूँ………
सोचते बहुत हो…….श्री खारकर ने टोका ।
‘सुनिये तो अगर हम ट्रीटमेंट प्लांट यहां गेस्ट हाऊस के निकट ही बनायें तो’मैंने कहा ।
”तो क्या होगा“- रानाडे ने पूछा ।
”हम डबल पंपिंग से बचेंगे । बोरडीह बांध से सीधा पानी यहां आयेगा और गुरुत्व से सप्लाई होगा“-मैंने कहा।
”धत तेरे की“-राघवन ने अपने सिर पर हाथ मारकर कहा ”मेरे दिमाग में यह ख्याल क्यों नहीं आया“पर डिजाईन हो चुका है नया डिजाईन । क्या तुम कर सकोगे सात दिन में ।
”बिलकुल कर लूंगा । मेरा जिम्मा रहा“- मैंने कहा ।
यात्रा रिपोर्ट बनी । निर्णय लिख लिया गया ।
जिम्मेवारी लेना एक बात है । काम करना दूसरी । चार दिनों में मैं पंपिंग मेन वॉल्वादि तथा ऊँचाई व्यवस्थादि का तकनीकी भाग पूरा कर चुका था । आर.सी.सी. डिजाईन मैंने छोड़ रखा था कालेज के बाद से ही । अतः टेढ़ी खीर था । मैंने उसकी कोशिश की पुस्तकें ढूंढ कर, पर बुरी तरह असफल रहा । छठवें दिन राघवन ने मुझे बुलाया ।
”जी सर“- मैंने कहा ।
राजहंस ट्रीटमेंट प्लांट कार्य हुआ ?
तकनीकी भाग, आकार, प्रकार, पाइपलाईन व्यवस्थादि मैंने कर दिये हैं । पर आर.सी.सी. भाग में असफल हो गया सर । मैंने हार स्वीकारी ।
जाओ आर.सी.सी. का आई.एस. लाओ ।
यह है सर मैंने निकाल कर दिया ।
तकनीकी डिजाईन दिखाओ ।
मैंने पूरा दिखाया और श्री राघवन ने मात्र डेढ घंटे में पूरा आर.सी.सी. डिजाईन जिस पर मैं तीन दिन से माथापच्ची कर रहा था, करके कागज मुझे सौंपते हुए कहा – जाओ जैन से कहो उसका डिजाईन बनवा लेगा।
श्री राघवन के प्रभुत्व प्रबंधन का मैं उम्र भर कायल रहा ।
मेरी नौकरी का वह तीसरा दिन था । शाम 5 बजे का समय था । पहाड़ियाँ चढ़ना मेरा शौक है । एक पहाड़ी पर पंप हाऊस है । मैं चढ़ा । वहाँ सुपरवाईजर श्री काशी से बातचीत हुई । मैंने रिकार्ड की रीडिंग देखी, उसमें कुछ त्रुटियां थीं । श्री कोशी को वह समझाई साथ ही सरल तरीके से त्रुटि रहित रिकार्ड करना भी बताया। कोशी थोड़े भयभीत थे कि श्री घोष जोनल इंजीनियर उन्हें फिर डांटेंगे । मैंने कहा – चिन्ता मत करो, मैं संभाल लूंगा । रिकार्ड लेकर तुम आना जब मैं उनके पास बैठा होऊं । वैसा ही हुआ । मैंने श्री घोष को पहले ही बताया दिया था । अतः त्रुटि सामान्यीकरण हो चुका था ।
दस माह बाद एक होटल में श्री चौधरी (मेरे टी.ए. मित्र) ने सुना कि कोशी अपने मित्र से कह रहे थे अगर क्षत्रिय साहब की कान्फिेडेंशियल रिपोर्ट कोई खराब करेगा तो मैं उसका खून कर दूंगा ।
प्रभुत्व प्रबधंन का वर्तमान नाम ओनिंग दी स्टाफ है ।
आशुगामी: अस्तित्व पहचान प्रबंधन गतिशील होता है । अगतिशील प्रबंधन रेत का बोरा होकर रह जाता है । प्रबंधन गति की परिभाषा है लकीर का फकीर होने
से पूर्व ही नया कदम बढ़ा नया सूर्य गढ़ना। आशुगामी प्रबंधन ही नव ज्योति व्यवस्था में गतिशीलता के कारण ढलता है ।
हृय: गतिशील मात्र…………….(1) (पाठकों से क्षमा प्रार्थी हैं इस अधूरे आलेख के लिए.. “आर्यवीर”)
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)