समय की सर्वोत्तम परिभाषा तब नहीं तब नहीं ”अब“है। अर्थात यह आदि में अव्यक्ता है, मध्य में व्यक्त है और अन्त में अव्यक्ता है। समय प्रबन्धन का सर्वोत्तम तथ्य ‘अब’है। अब पीछे से गंजा होता है। इसके सामने बाल होते हैं। अगर इसे सामने से पकड़ लिया तो ठीक है, अन्यथा इसे पकड़ नहीं सकते और यह हाथ से निकल जाता है। संस्कृत में समय के ‘अब’के लिये इदानीम्, अधुना तथा अथ शब्दों का प्रयोग होता है। तीनों शब्द समय प्रबन्धन के महान शब्द हैं। ‘अब’प्रबन्धन का एक महासूत्र है उत्तम शुभारम्भ अर्ध कार्य सम्पन्न। यही कारण है कि भारत में परम्परा है श्री गणेशाय नमः, ओ3म् नमः शिवाय, शुरू कर अल्लाह के नाम से की। इसका अर्थ है- कार्य में ब्रह्म गुण उतरें।
भारतीय संस्कृति में अधिकांश संस्कृत पुस्तकों का आरंभ अथ शब्द से होता है। आरंभ के सन्दर्भ में अन्य शब्द जो प्रयुक्त होते हैं ये इदानीम् तथा अधुना है। अथ समय प्रबन्ध्ान का सबसे महत्वपूर्ण शब्द है। वह शब्द तीन अर्थ एक साथ समेटे हुए है। (1) साधिकार, (2) यथावत, (3) यथातथ्य। 1) साधिकार मेें दो भाव हैं (अ) अधिकार, (ब) स$अधिकार। अधिकार प्रयोग पूर्वक या सार्थक अधिकार। अगर अनाधिकृत व्यक्ति दिखावा है। आज भारत में जगह-जगह उद्घाटन के पत्थर लगे हुए हैं जो मात्र पत्थर हैं। एक मंदिर संस्थान में शिर्डी के मंदिर का उद्घाटन पत्थर पांच बार लग चुका है। यह राजनैतिक थो-थो-थू-थू अथ है जो व्यवस्था को मूर्ख सिद्ध करता है। इसलिए ‘अथ’आरंभ अब में साधिकारिता आवश्यक हैैै। 2) यथावत:- अथ का दूसरा तत्व है यथावत होना। वर्तमान भाषा में इसे विज्ञान सम्मत होना कहा जाता है या वैज्ञानिक विधि सम्मत कहा जाता है। इसका मूल सूत्र है कि विज्ञान पद्वति में निहित है विषय वस्तु में नहीं। न्याय दर्शन का अवयव- जो क) प्रतिज्ञा, ख) हेतु, ग) उदाहरण, घ) उपनय, ङ) निगमन आज वैज्ञानिक विधि के रूप में परिभाषित किया गया है। इससे गुजरी वस्तु को ‘यथावत’माना जाता है। तीसरा यथातथ्य- वस्तु को यथावत जानना ही महत्वपूर्ण नहीं है उसे वैसा ही कहना तथा वैसा ही उसके प्रति आचरण करना या उसके अनुरूप चलकर उसके समान पर नवकृति करना ‘यथातथ्य’है। पुरातन आधारों पर आज के अनुरूप नवीनीकरण यथातथ्य है।
इदानीम्:- इदानीम् शब्द से अब प्रबंधन के तत्काल भाव कीर अभिव्यक्ति है। आज ही करने वाले कार्य इदानीम सूूची में शामिल करने चाहिएं। कई कुशल प्रबंधक कार्य हेतु घर से निकलने से पूर्व ही आज के संपूर्ण ज्ञात कार्यों की फेरिस्त तैयार कर लेते हैं। यह इदानीम् दैनिक कार्य आयाजनों की याद दिलाता है। इदानीम् कार्यों की भी दो सूचियां होती हैं 1) दैनिक नियमित 2) दैनिक आयोजित। दैनिक नियमित में- जागरण, एन्जाइम लीलना- रात भर में मुंह में पैदा हुए स्वस्थ एन्जाइमों को जीभ द्वारा समेट कर लीलना, तनिक बदन तनाव दायीं करवट से उठना, उषापान, बांयी करवट लेटना, नित्यकर्म, योगासन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान, समाधि, स्वल्पाहार, दिवस-भोजन, विश्राम, स्वल्पाहार- सामाजिक कार्य, प्रार्थना, रात्रि-भोजन, मनोरंजन, साधना, शयन आदि कार्यों का समावेश है। यदि ये इदानीम् कार्य समयबद्ध हो तो तन को लयक लाभ मिलता है। आदत ये इन्द्रियां अतः स्रावी ग्रंथियां तथा इस उद्रेकों का लाभ संवेदन कोषिकाओं के मध्य संवेदन लयक बनने के कारण मिलता है। 2) दैनिक आयोजित में कुछ तो पूर्व के सतत् कार्य होते हैं और कुछ आकस्मिक होते हैं- इन्हें आल्हाद पूर्वक नया कदम नया सूर्य गढ़ने के समान आल्हाद पूर्वक करना चाहिए।
अधुना:- अधुना का अर्थ होता है आधुनिकताओं के अनुरूप। यह अब प्रबंधन का अति महत्वपूर्ण तत्व है। आधुनिक की परिभाषा करना अत्यधिक कठिन है। आधुनिक जानने पहचानने की कुछ तकनीकें हैं। 1) नया कदम नया सूर्य, 2) संस्कार, 3) स्तरीकरण, 4) समकक्षों में प्रथम, 5) लोक गति से तेज 6) संस्कृति विज्ञान से पिछड़ती चलती है।
1) नया कदम नया सूर्य:- लकीर का फकीर होने से पहले जो व्यक्ति नया कदम उठा लेता है वह नया सूर्य गढ़ने का आल्हाद भोगता है। उसे सूर्य गढ़ने का चारों ओर से लाभ मिलता है यह लाभ आधुनिकता का है।
2) संस्कार:- दोषमार्जनम्, हीनांगपूर्ति, अतिशयाधान और सर्वाधान यह संस्कार का शब्दिक अर्थ है। दोष मार्जनम् -अर्ध उन्नयनीकरण है हीनांगपूर्ति उन्नयनीकरण है तथा अतिशयाधान- अंश आधुनिकीकरण है। सर्वाधान – सर्वनवप्रस्थापन आधुनिकीकरण है।
3) स्तीरकरण:- आधुनिक के लिये सतत जागरूकता जरूरी है। स्तरीकरण का अर्थ है विभिन्न आधुनिक तकनीकों को सर्वोच्च से निम्न तक क्रमीकरण। न केवल सर्वोच्च से निम्न तक वरन् आधुनिकता की दृष्टि से भी क्रमीकरण तथा स्व संस्थान का इनके अनुरूप क्रमशः उच्चीकरण।
4) समकक्षों मे प्रथम:- आस-पास अपने क्षेत्र में समकक्षों में प्रथम ही रहना आध्ुनिकीकरण द्वारा ही हो सकता है।
5) लोक गति से तेज:- यह वक्त का तकाजा है कि वर्तमान युग में ठहरे रहने के लिए दौड़ना पड़ता है। और आध्ाुनिक होने के लिये तैरता सा दौड़ना पड़ता है।
6) संस्कृति विज्ञान में पिछड़ती चलती है:- विज्ञान लगड़ी लड़की है संस्कृति सम्भ्रान्त महिला है। लंगड़ी लड़की कूद कर चलती है सम्भ्रान्त महिला सब सहेज समेट कर युगल न दिखें सिद्धान्तानुरूप धीमी पर ठोस गति से बढ़ती है। आध्ुनिक होने के लिये कूद आवश्यक है।
इस प्रकार अथ, इदानीम्, अधुना, ”अब प्रबन्धन“के तीन व्यवहारिक रूप है। अब प्रबन्धन का चौथा आदर्श रूप जीवेम ब्रह्म शत अधिकम् है।
जीवेम ब्रह्म शत अधिकम्:- तब अब तब ब्रह्म, देव हितम् ब्रह्म, तब नहीं-अब-तब नहीं हम, देव तितिर-बितिर हम। देव का अर्थ सप्तेन्द्रियों वाक्, प्राण, श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना, नासिका हैं। इनके विषय वाचा, प्राण, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध हैं। जिये ब्रह्म वर्ष शत अधिकम्। वाचें, प्राणें, सुनें, स्पर्शें, देखें, आस्वादें, आगन्धें ब्रह्म शत वर्ष से भी अधिक समय तक। अपने ‘अब’को ब्रह्म ‘अब’से जोड़ने का सर्वोत्तम तरीका हर पल ब्रह्म गुण स्वयं में उतारना और जीना है। यह अब प्रबन्धन का सर्वोच्च रूप है।
दशरूपकम अब प्रबन्धन भी कार्य की परिवर्तित स्थितियों के अनुसार परिर्वतनीय होता है। परियोजना का कार्य सर्पिल वक्र के हिसाब से गति में कमाधिक होता है। आरंभ अवस्था में ‘अब’का आयोजन धीर प्रशांत रूप में, यत्न अवस्था में धीरललित रूप में, प्राप्ताशा व्यवस्था मंें धीर उद्धत रूप में, नियताप्ति अवस्था में धीर ललित रूप में, तथा फलागम अवस्था में पुनः धीर प्रशांत रूप में करना होता है। यह अति जटिल नियम हैै। कार्य लय के अनुरूप अति क्रमशः अब प्रबन्धन लय में भी परिवर्तन अत्यावश्यक है। इस कार्य के अनुरूप ‘अब लय’के रहस्य को न समझ पाने के कारण विश्व में परियोजना प्रबन्धन विज्ञान असफल होते देखा गया है।
अब प्रबन्धन का कबीर सूत्र है-
काल करै सो आज कर आज करै सो अब।
पल में परलय होगी बहुरि करेगा कब ?।
यह सूत्र परियोजना प्रबन्धन जैसे जटिल प्रबन्धन में बड़े ही उज्जवल परिणाम देगा। परियोजना प्रबन्धन में डॉ. क्षत्रिय सूत्र यह है कि-
आज करै सो आज कर, कल करै सो कल।
परसों करै से परसों कर निश्चित होगा सफल।
परियोजना प्रबन्धन में तो आज की अबलय, कल की अबलय, परसों की अबलय अलग अलग है। कभी-कभी परियोजना प्रबन्धन में मतिभ्रम हो जाता है कि कल का काम आज कर लिया जाए है। यह वास्तव में घटिया दशरूप चित्र बनाने के ही कारण होता है। सटीक दशरूपकम आयोजन पर तो उपरोक्त नियम ही लागू होगा।
इस प्रकार अथ, इदानीम्, अधुना, जीवेम शत अधिकम्, दशरूपकम्, अब प्रबन्धन के प्रारूप दर्शाते हैं। इनमें मानव अब-समय-प्रबन्धन दक्ष होता है।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)