“अन्तर्रस साधना”

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भावातीत ध्यान अनुगुणित तैंतीस रस देवताओं को अप्रत्यक्ष प्रभावित करता है। पर उसके परिणाम भी प्रभावशील हैं। अन्तर्रस साधना जिसे रसन भावातीत भी कहा जा सकता है सीधी लार उत्पादक तथा स्वादन ग्रन्थियों से युजित साधना है। अतः उसका लार पर सुप्रभाव कहीं कहीं अधिक होना लाजिमी है। अन्तर्रस साधना के समान अन्तर्रूप साधना का ‘अश्रु’ घटकों पर, अन्तर्मौन साधना का कर्ण द्रव्य घटकों पर, अन्तर्स्वासन या अन्तर्गन्ध का ष्वास या फुफ्फुस द्रव्य पर, अन्तर्स्पर्ष का त्वक् स्वेदन द्रव्य घटकों पर सकारात्मक सषक्तिकरण प्रभाव पड़ेगा ही। इस पर व्यापक चिकित्सा षोध की आवष्यकता है। इन समस्त साधनाओं की सिरमौर अन्तर्-अक्षर साधना है।

भारतीय संस्कृति को प्रणाम जिसने व्यवस्था दी है कि भोजन करने से पूर्व ब्रह्म को उसका ध्यान कर धन्यवाद दे मन्त्र बोलना चाहिए। इस प्रक्रिया से लार सांद्रण भोजन को सुभोजन कर देता है। भोजन पूर्व उदात्त वाक्य बोजने की परंपरा का पालन भिलाई इस्पात संयन्त्र के परियोजना विभाग के सुरक्षा एवं प्रशिक्षण विभाग में भी होता है। भोजन पूर्व मात्र पांच मिनट अन्तर्रस साधना करने से भोजन सुभोजनता में वृद्धि होगी।

अन्तर्रस साधना का प्रारूप इस प्रकार है- (यह प्रारूप पांच मिनट समय हेतु बताया जा रहा है)

1. स्थिरं सुखमासनम् बैठना। 2. आती जाती ष्वास तीन बार देखना (बारह सेकंड)। 3. दीर्घ श्वास ले ‘अगाओ’ या ‘गॉड’ या ‘अल्लाह’ या ‘ओऽम्’ उच्चारण (अड़तालीस सेकंड)। 4. जीभ पर विभिन्न स्वादों का अनुगुणित तैतीस तथा फिर तैंतीस का अहसास। जीभ को स्वाद आकाषवत मानते यह संभव है (दो मिनट)। 5. तैंतीस में एक स्वादों के स्वाद तथा स्वाद कर्ता का अहसास (एक मिनट) 6. दीर्घ ष्वास ले ‘अगाओ’ या ‘गॉड’ या ‘अल्लाह’ या ‘ओऽम्’ उच्चारण (अड़तालीस सेकंड)। 7. तीन बार आती जाती ष्वास को देखना। यह अन्तर्रस पांच मिनट भोजन पूर्व की साधना है। वैसे इस साधना को जीवन में सधने के लिए इसका प्रतिदिवस दो बार का क्रम इस प्रकार है-

1.स्थिरं सुखमासनम् बैठना। 2. स्व आकलन- बायां या दायां हाथ सिर पर मूर्धा स्थान रखकर मूर्धा स्वर ऋ तथा लृ का उच्चारण कर हाथ में प्रकंपन नापना तथा प्रकंपन मात्रा का ध्यान रखना। 3. आती जाती श्वास प्रश्वास देखना तीन बार या तीन बार नाड़ी शोधक प्रणायाम करना। 4. पूरी श्वास ले दीर्घ उच्चार अपने इष्ट का नाम लेना। 5. जीभ आकाश पर अनुगुणित तैंतीस फिर तैंतीस स्वादों का आह्लादन (पंद्रह मिनट) 6. स्वादों के स्वाद वीलम स्वाद का आनंदन (सात मिनट)। 7. स्वादकर्ता का स्व स्थान या स्वाधान (साढ़े तीन मिनट)। 8. संख्या 4,3,2 एवं 1 का दुहराव।

यह करीब आधे घंटे की साधना है। इसमें स्वादन चेतना विस्तरण है तथा पूर्व चरण 5 में स्वादों का क्रमण होता है। यह क्रमण स्वादन अहसास को क्रमषः क्रमित समन्वित करता है। मस्तिष्क का स्वादन क्षेत्र एक क्रमित समन्वयन (Coherence) प्राप्त करता है। छटवीं साधना स्वादों के स्वाद की अवस्था में स्वादन कोषिकाओं का एकी समन्वयन होता है। तथा सातवीं अवस्था में स्व-स्थन या स्वाधान अर्थात अति-आत्मता के प्रवेशद्वार पहुंच होती है। इस अवस्था पूरी तन कोषिकाओं पर एक सुप्रभाव पड़ता है।

अन्तर्रस साधना के समान ही अन्तर्गन्ध, अन्तर्रूप, अन्तर्शब्द या अन्तर्मौन, अन्तर्स्पर्श साधनाएं हैं। अन्तर्गन्ध साधना से युजित अन्तर्प्राण साधना है। इस अन्तर्प्राण साधना का प्रारूप तनिक भिन्न है। 1 से 4 चरण हर साधना में समान हैं। इसी प्रकार 8 वां चरण हर साधना में समान है। प्राण साधना के मध्य चरण इस प्रकार हैं- 5. फेफडों के आकाष में अनुपूरित वायु के प्रति लघु फुफ्फुस में निष्कासन के अहसास, पूर्ण दीर्घ ष्वास के साथ तथा वायु के प्रति लघु फुफ्फुस में निष्कासन का अहसास पूर्ण दीर्घ प्रष्वास के साथ। यह दीर्घ ष्वास प्रष्वास जितनी भी मन्द होंगे या धीमी गति होंगे परिणाम उतना ही बेहतर होगा। ष्वास की अन्तस गति के साथ इष्ट देव का स्मरण तथा अन्तस गहन तक ष्वास अहसास तथा प्रष्वास के साथ अन्तस से बाह्यतम तक प्रष्वास अहसास तथा इष्ट देव स्मरण भी जोड़ना है। ष्वास प्रष्वास आकाष चेतना विस्तरण इस इस अभ्यास का उद्देष्य है। 6. प्राण का सहज मन्दन एवं सम विस्तरण। सम, स्थिर, स्वस्थ, जीवनप्रद ष्वास प्रष्वास गति प्रकृष्ट गति प्राण परिभाषा है। प्राणन पर चिन्तन अहसासन से प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान और पंच उपप्राण समकेतन इस चरण में करना है (सात मिनट)। 7. अ) रीढ़ में तैंतीस केन्द्र तैंतीस प्राण देवता हैं इनमें प्राण प्रवहणन (पांच मिनट)। ब) तैंतीस का मूलाधार से सहस्रार तक निम्नलिखित ग्यारह- भूः -(मूलाधार), जनः -(उपायु), स्वः -(स्वाधिष्ठान), मणिः -(नाभि), महः -(हृदयारम्भ), अनाहतः -(स्व-स्थ-केन्द्र), तपः (हृदान्त), विशुद्ध -भुवः, आज्ञा -ब्रह्म में संचयन (पांच मिनट)। स) ग्यारह का एक में मेधन (सात मिनट) या प्राण के प्राण का अहसास। 8. संख्या 4,3,2,1 का दुहराव। यह प्राण साधना है। भावातीत साधना तथा राजयोग साधना की अवस्था में किए प्रयोग बताते हैं कि उन साधनाओं के दौरान शरीर में ओषजन खपत में 8.5 प्रतिशत कार्बनद्विओषिद त्यागन में 6.7 प्रतिशत तथा श्वास-प्रश्वास गति में 9.6 प्रतिशत की कमी होती है। इतना ही नहीं शोध यह भी बताती है कि जो प्रातः सायं बीस-तीस मिनट साधना करते हैं उनमें सामान्य की तुलना में ओषजन खपत 16.6 प्रतिशत, कार्बनद्विओषिद निष्कासन 19.5 प्रतिशत, श्वास-प्रश्वास गति 18 प्रतिशत कम होती है।

तनाव अवस्था में ओषजन खपत, श्वास-प्रश्वास गति, कार्बनद्विओषद त्यागन में अभिवृद्धि एक आम बात है। अतः सिद्ध है साधना तनाव मुक्ति के साथ ही साथ अनेकानेक तनाव उत्पन्न बीमारियों का भी इलाज है।

भावातीत साधना के सर्वव्यापी प्रभाव का प्रभाव प्राण पर इतना पडता है तो अन्तर्प्राण साधना जो सीधी प्राण से सम्बन्धित है उसका प्रभाव कितना अधिक होगा इसकी कल्पना की जा सकती है।

अन्तर्गन्ध एवं अन्तर्प्राण साधना सतत करने वालों के फुफ्फुस रस का अगर आण्विक विष्लेषण किया गया तो उसमें जिन्क आयनों की मात्रा में आशातीत परिवर्तन पाया जाएगा ही।

मानव व्यवस्था आण्विक सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। इस व्यवस्था नियन्त्रण में ग्रविटॉन या गुरुत्वान जो कि सूक्ष्मतम कल्पित कण है भी अति अति स्थूल है।

उन्हीं साधनाओं के समान ही अन्तर्रूप, अन्तर्शब्द या अन्तर्माैन, अन्तर्स्पर्श साधनाएं हैं। किसी भी एक साधना के सध जाने पर अन्य साधनाएं सधने में अपेक्षाकृत कम समय लगता है।

स्व.डॉ.त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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