धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनु. ६-१२)
भावार्थ- धैर्य रखना, सहनशील होना, मन को अधर्म से रोकना, चोरी-त्याग, रागद्वेष न करना, इन्द्रियों को धर्म में चलाना, बुद्धि बढ़ाना, विद्वान बनना, सत्याचरण एवं क्रोध न करना ये दश धर्म के लक्षण हैं।
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।। (मुण्डकोपनिषद् २-१-१८) भावार्थ– ईश्वर का साक्षात्कार होने पर आत्मा की अविद्या नष्ट हो जाती है। सारे संशय मिट जाते हैं और सारे कुसंस्कारों का नाश हो जाता है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधाद् भवति संमोहः संमोहात्समृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
(गीता. २-६२, ६३)
भावार्थ– विषयों का ध्यान करने से ध्येय वस्तु में आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से उस वस्तु को प्राप्त करने की कामना उत्पन्न होती है। कामना की पूर्ति न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध होने पर परिणाम क्या होगा यह विवेक नहीं रहता। विवेक खो जाने पर स्मृति भी नष्ट हो जाती है। स्मृति के नष्ट होने पर मनुष्य बुद्धिहीन बन जाता है और बुद्धि के नाश होने पर मनुष्य-मनुष्य नहीं रहता।
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।। (कठो. १-३-३, ४)
भावार्थ– आत्मा रथ का स्वामी है, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है, इन्द्रियां घोड़े हैं, और रूपादि विषय इन्द्रियों के मार्ग हैं। जब आत्मा-मन तथा इन्द्रियों के साथ संयुक्त होकर विषयों का सुखपूर्वक सेवन करता है, तब ‘भोक्ता’ होता है, ऐसा विद्वान् लोग बताते हैं।
मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्।
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्।।
भावार्थ- बुरे मनुष्य के मन में कुछ और होता है, वाणी से कुछ बोलता है और शरीर से करता कुछ और ही है। किन्तु अच्छे मनुष्य, जैसा मन में होता है, वैसा ही वाणी से बोलते हैं, जैसा वाणी से बोलते हैं, वैसा ही शरीर से करते हैं।
अक्रोधेन जयेत्क्रोधमसाधुं साधुना जयेत्।
जयेत् कदर्यं दानेन सत्येनानृतवादिनम्।।
भावार्थ– क्रोधी मनुष्य को प्रेम से जीते, दुष्ट मनुष्य को उपकार से अर्थात् साधुता से, कंजूस व्यक्ति को दान से जीते तथा झूठे व्यक्ति को सत्य से जीते अर्थात् अपना बनावे, ये सत्पुरुषों के लक्षण हैं।
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।
भावार्थ– विषय-वासनाएं विषयों को भोगने से नष्ट नहीं होतीं, बल्कि और अधिक बढ़ती हैं, जैसे अग्नि में घी डालने से अग्नि और अधिक बढ़ता है।
प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः।
किन्नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरिति। (शारंगधर संहिता)
भावार्थ– मनुष्य को चाहिए, वह प्रत्येक दिन आत्मनिरीक्षण करके पता लगावे कि मेरा जीवन पशुओं के समान केवल खाने-पीने में ही व्यतीत हो रहा है या सत्पुरुषों के समान उत्तम-उत्तम कार्यों में लग रहा है।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। (गीता २-२३)
भावार्थ- इस शरीर के प्रयोक्ता जीवात्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, पानी गला नहीं सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।
स्थानाद्बीजादुपष्टम्भान्निःस्यन्दान्निधनादपि।
कायमोधेयशौचत्वात् पण्डिता ह्यशुचिं विदुः।।
(योग. व्यास. २-५)
भावार्थ- गर्भाशय में उत्पन्न होने से, रजवीर्य से बना होने से, खाए हुए पदार्थों से निर्माण होने से, हर क्षण मल निकलता रहने से, मृत्यु होने पर अपवित्र हो जाने से तथा हर समय शुद्धि की अपेक्षा रहने के कारण इस शरीर को बुद्धिमान् लोग अपवित्र बताते हैं।
अद्यैव कुरु यच्छ्रेयो मा त्वां कालोऽत्यगादयम्।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम्।।
(महाभारत, शान्तिपर्व १७४-१४)
भावार्थ– जो उत्तम कार्य करना हो, वह आज ही कर डालो, कहीं ऐसा न हो कि काल तुम्हें निगल जाए। मृत्यु इस बात की प्रतीक्षा नहीं करती कि तुमने कोई कार्य पूरा किया है या नहीं।
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः।
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः।।
भावार्थ– शरीर नित्य रहने वाले नहीं है, धन सम्पदा भी अनित्य है और मृत्यु हर समय सिर पर मंडराती रहती है, इसलिए शीघ्र ही धर्म-संग्रह करना चाहिए।
षड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
भावार्थ- किसी भी प्रकार की धन सम्पत्ति प्राप्त करने की इच्छा वाले मनुष्य को चाहिए कि वह अधिक नींद, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य तथा काम को देरी से करने की प्रवृत्ति को छोड़ दे।
नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः।
नास्ति क्रोधसमो वह्निः पाशो लोभसमो न च।। भावार्थ- कामवासना के समान दुःखदायी रोग नहीं, मोह के सामने भयंकर शत्रु नहीं, क्रोध के समान अग्नि नहीं तथा लोभ के समान और कोई बन्धन नहीं है।