आदर्श पुरुष का स्वरूप

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प्रत्यय सत्य होता है स्वरूप नकल। नकल में असल ही आधार होता है। इस असल के आधार का प्रतिशत हर नकल में अलग अलग होता है। सुकरात उपरोक्त तथ्य को एक भोतिक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करता है। हम अगणित त्रिकोणों को पृथ्वी, कागज या किसी अन्य सतहों पर सींचते हैं, इनमें कोई बड़ा होता है कोई छोटा, और सभी जल्दी मिट जाते हैं। परन्तु त्रिकोण है क्या? जब हम बुद्धि का प्रयोग करते हैं तो त्रिकोणों के भेद के नीचे उनका स्थाई स्वरूप देखते हैं। यह त्रिकोण का लक्षण है।

त्रिकोंण या त्रिभुज का मूल लक्षण ही त्रिभुज प्रत्यय है। इस प्रत्यय तक पहुंचने के लिए मनन आवश्यक है। वेद प्रत्ययों से भरे हैं तथा ये प्रत्यय मनन से ही स्पष्ट होते हैं। ”मन्त्र“ वह है जो मनन करने का विषय है। ”मननात् मन्त्रः“ मनन करने के पद समुदाय को मन्त्र कहते हैं। संस्कृत साहित्य के आदि ग्रन्थ वेद हैं। वेदों में आदर्श पुरुष प्रत्यय अनेक स्थल दिए गए हैं।

वेद के हर मन्त्र के आरम्भ में बोला जाने वाला प्रत्यय है ओंकार अर्थात् ओऽम्। सातवलेकर के अनुसार उपनिषद सत्य मानते हैं कि तीनों वेद से अ उ म् तीन अक्षर लेकर ओंकार बना है। ‘अ’ ऋग्वेद के प्रारम्भ में है, ‘उ’ यजुर्वेद के मध्य में है तथा ‘म’ सामवेद के अन्त में है।

ओऽम् प्रत्यय है जो ब्रह्म पर घटित किया जा सकता है। इसका ब्रह्म पर घटित अर्थ इस प्रकार है- (ओऽम्) यह ओंकार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है क्योंकि इसमें जो अ उ और म् तीन अक्षर मिलकर एक (ओऽम्) समुदाय हुआ है। इस एक नाम से परमेश्वर के अनेक नाम आ जाते हैं। जैसे अकार से विराट, अग्नि, विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु, तेज आदि। मकार से ईश्वर, आदित्य, प्राज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है। ओऽम् ब्रह्म रूपी परमेश्वर का सर्वोत्तम द्योतक है। ओऽम् में वेद पिरोए गए हैं।

चारों वेदों के सन्दर्भ में-

ऋचे त्वा रुचे त्वा मासे त्वा ज्योतिषे त्वा।
अमूदिदं विश्वस्य भुवनस्य वाजिनमग्ने वैश्वानरस्य वा।।

मैंने तुझे ऋग्वेद को स्तुति के लिए, तुझे यजुर्वेद को शोभन कर्म के लिए, तुझे सामवेद को आत्मदीप्ति के लिए, तुझे अथर्ववेद को विवेकज्योति के लिए ग्रहण किया है। समस्त ब्रह्माण्ड का और वैश्वानर अग्नि (ब्रह्म पुरुष का) यह विज्ञान मुझे सिद्ध हुआ है।

जो तुझसा हो सो तुझे जाने। वेद सर्वांश से अंश के व्यापक सिद्धान्त को दर्शाते हैं। वेद चतुष्टय का साधक वेदों को स्व-अस्तित्व में रचा पचा लेता है।

ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्राणं प्रपद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये।
वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ।।
 (यजु.36/1)

मेरे ओजस्वी प्राण-अपान जिस प्रकार मेरे अस्तित्व में रच-पच रहे हैं, उसी प्रकार मेरी वाणी में ऋग्वेद रच-पच गया है। मेरे मन में यजुर्वेद रच पच गया है। मेरे प्राण सामवेद से ओतः प्रोत हैं तथा मेरी इन्द्रियां अथर्ववेद आपूर्त हैं।

वाणी विज्ञानी, मन यज्ञ महानी, इन्द्रियां अथर्वा (विचलन रहित शान्त) प्राणों में साम के आनन्द प्रवाह यह संस्कृत साहित्य के दिव्य पुरुष का प्रांजल स्वरूप है।

ओऽम् संस्कृति में ओऽम् साधना परिपक्वावस्था के साधकों के स्वरूप वेदों में स्थल-स्थल हैं। ऋग्वेद 10/13/3 में तथा तनिक भेद से अथर्ववेद 18/3/40 में यह स्वरूप इस प्रकार दिया है-

पंच पदानि रूपो अन्वरोहं चतुष्पदीमन्वेमि व्रतेन।
अक्षरेण प्रति मिम एतामृतस्य नाभावधि सम्पुनामि।।

यज्ञव्रत, ऋतव्रत, सत्यव्रत के द्वारा एक रूप के पांच कोषों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय) को अनुक्रम से पावन सिद्ध कर लिया है। वाणी के चार पद (परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी) मेरे अधिकृत हैं। चतुष्टय वेदमय ओंकार, चतुष्मयी वाणीयुक्त मुझमें समाविष्ट है। ऋत में इस विश्व के हर हर स्थलीय नाभि केन्द्र ब्रह्म में अवस्थित यह मैं परम पवित्र हूँ।

आदर्श पुरुष का यह सर्वोत्तम प्रत्यय है। साधना, साधन, साधक तथा लक्ष्य का उपरोक्त वेदमन्त्र में अनुपम समन्वय है।

ज्ञान वह है जो पितावत ऊंगली पकड़कर चलाए। ”स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव“– ऋग्वेद 1/1/9

ब्रह्म- वेद ज्ञान शिशु के लिए पिता समान सहज सुखद प्राप्तव्य है। उपरोक्त आदर्श पुरुष की प्राप्ति का पथ भी वैदिक संस्कृत साहित्य में सहज उपलब्ध है।

”स सुगोपा“ द्वारा यजुर्वेद 2/31 कामन्त्र परण एक सूत्र दर्शाता है। वह उत्तम पद्धति से इन्द्रियों का रक्षक है। यह वह बीज है जिसमें ”ओऽम् वाक् वाक्, ओऽम् प्राणः प्राणः, ओऽम् चक्षुश्चक्षुः, ओऽम् श्रोत्रं श्रोत्रम्, ओऽम् नाभिः, ओऽम् हृदयम्, ओऽम् कण्ठः, ओऽम् शिरः, ओऽम् बाहुभ्यां यशोबलम्, ओऽम् करतलकरपृष्ठे“ का पवित्रता वितान विकसित हुआ है।

सुगोपा का स्वरूप इस प्रकार है- ”स्थूल तथा सूक्ष्म वक्तृत्वया वाणी तथा स्वाद- अशन बल तेज यशयुक्ता। प्राण, श्वास, प्रश्वासतथा गन्ध शक्ति बलवान होकर यशोमय। स्थूल तथा सूक्ष्म दृष्टि बल, तेज, यश से पूर्ण। स्थूल तथा सूक्ष्म श्रवण शक्ति बल तेज तथा यश पूर्ण। अस्तित्व की नाभिशक्ति तेज बल यश से युक्त। अन्तस शक्तिमय, तेजोमय यशेमय। कण्ठशक्ति बलवान यशस्वी तथा प्रभावशाली मधुर। मस्तिष्क की स्मरण एवं चिन्तनशक्ति बल, तेज व यश से पूर्ण। बाहुएं एवं हस्त बल, तेज, सुयश से परिपूर्ण और आदान प्रदान भी यशोमय हो।

उपरोक्त ‘सुगोपा’ स्वरूप साधक के संयम के फलस्वरूप है। इससे उच्चतर सुगोपा स्वरूपसाधक के ब्रह्म में संयम के फल स्वरूप प्राप्त होता है।

”ओऽम् भूः पुनातु शिरसि। ओऽम् भुवः पुनातु नेत्रयोः। ओऽम् स्वः पुनातु कण्ठे। ओऽम् महः पुनातु हृदये। ओऽम् जनः पुनातु नाभ्याम्। ओऽम् तपः पुनातु पादयोः। ओऽम् सत्यं पुनातु पुनः शिरसि। ओऽम् खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र।“ वह प्राणों के प्राण प्रिय परमात्मा से पवित्र सिर। दोष निवारक, सुखदायक परमात्मा से पवित्र नेत्र। व्यापक ऋत आनन्दवर्षक परमात्मा से पवित्र कण्ठ। सर्वोपरि महान पूज्य विराजमान अन्तर्यामी ब्रह्म से पवित्र हृदय। सर्वोत्पादक से पवित्र नाभि। अस्तित्वाधार, न्यायकारी शिक्षक परमात्मा से पवित्र जीवन यापन। सत्य स्वरूप नित्य परमात्मा से पुनः पवित्र सिर मेरा है। वह ब्रह्म आकाशवत व्यपक मुझे सर्वसमय, सर्वदा, सर्वथा पवित्र बनाए रखे।

अन्तस् बाह्य ब्रह्म पवित्र पूर्ण पुरुष स्वयं में ब्रह्म को आप्त प्राप्त पाता है।

अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्र श्रवस्तमः।
देवो देवे भिरागमत।।
 ऋग्वेद 1/5

परमात्मा के दिव्य गुणों से पूर्ण ही आदर्श पुरुष हो सकता है। ”व्यापक, कर्मयुक्त, विभु, गतिमान एवं सर्वत्र अप्रतिहत, सर्वज्ञत्वगति, शक्तिमान, नित्य-अनित्य समस्त सत्ताओं में विराजमान उनका अविनाशी आधार, अद्भुत महिमामय, अनुपम महिमायुक्त, सृष्टियज्ञ का रचयिता, धर्ता, संहर्ता ज्योतित परमेश्वर स्वमहिमारूप दिव्य गुणों सहित आप्त प्राप्त है।“

उपरोक्त मन्त्र का ऋषि मधुच्छन्दा अर्थात् मधु इच्छुक, अन्तस् बाह्य मिठास पिपासु एवं मधुतन्त्र, मधुपारायण मन, वचन, कर्म से मधुमय है। आदर्श पुरुष का वैदिक रूप भी मधुमय है।

मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
वाचा वदामि मधुमत् भूयासं मधुसन्दृशः।।
 अथर्ववेद 1/34/3

मेरा निकट का स्वयं परक गमनागमन है मधुमय। मेरा पर परक रहन-सहन, गमनागमन है मधुमय। मेरी वाणी है मधुमय। मेरा अस्तित्व है मधु का साक्षात स्वरूप।

केवल वैदिक साहित्य में ही नहीं संस्कृत साहित्य में अन्यत्र भी आदर्श पुरुष का आलंकारिक उदात्त वर्णन मिलता है। कादम्बरी में जाबालिवर्णन इस प्रकार है-

”ये जाबालि करुणा के प्रवाह हैं। संसार सिन्धु पार करने के संतरण सेतु हैं। समारूप जलागार हैं। सन्तोष सुधारूप सागर हैं। सोम उपदेष्टा हैं। शान्तिवृक्ष के मूल हैं। ज्ञान चक्र के केन्द्र हैं। धर्मध्वजा उच्चतम अट्टालिका हैं। सम्पूर्ण विद्याओं के प्रवेशद्वार हैं। शास्त्ररूपी रत्नसमूह की निकष हैं। सदाचार का उत्पत्तिस्थान हैं। मंगलों करा आयतन हैं। सत्पथों का उत्पत्तिस्थान हैं। सौजन्य के जनक हैं। उत्साह चक्र के क्षेत्र हैं। सत्वगुणों के आधार हैं। तपस्या की निधि हैं। ऋत के मित्र हैं। पुण्य संचय के प्रभव हैं। नलचम्पु में महामन्त्रि ऋतशील का वर्णन इस प्रकार दिया है। वह समस्त वेदों तथा शास्त्रों के आदेश की अक्षरमाला का प्रशस्ति स्तम्भ था। पुण्य कर्म रूपी जटा प्ररोहों का वटवृक्ष था। सद्व्यवहार रूपी रत्नों की खान था। राजनीतिरूपी चान्दनी का चन्द्र था। सकल कलाओं रूपी अंकुरों का कन्द था।“

इसी प्रकार संस्कृत साहित्य में अनेक स्थल आदर्श पुरुषों के विवरण उपलब्ध हैं। जो पठन मात्र से उदात्तता की ओर महानता की ओर प्रेरित करते हैं।

संस्कृत साहित्य के आदि ग्रन्थ वेद हैं जो सृष्टि के आदि ग्रन्थ भी हैं। इन आदि ग्रन्थों में पूर्ण पुरुष का ब्रह्म निकटतम अस्तित्व आज के साहित्य, राजनीति, विज्ञानादि में दुर्लभ है। आज के सर्वोच्च पदाधिकारी प्रजानन पदलिप्सामय, शेर, लोमड़ी आदि के स्वभावयुक्त हैं। वैदिक आदर्श पुरुष की ये प्रजानन (नेता जो प्रजामत आधारित हैं) अत्यन्त भौंडी नकलें हैं।

वेद के आदर्श प्रजातन्त्र पुरुष का स्वरूप इस प्रकार है-

अयुतो ऽ हमयुतो म आत्मायुतं मे चक्षुरयुतं मे श्रोत्रोमयुतो मे प्राणोयुतो मे ऽ पानोयुतो मे व्यानोयुतो ऽ हं सर्वः। मैं दस सहस्र (सहस्रों) सम्पूर्ण हूँ। मेरी आत्मा, चक्षु, श्रोत्र, नेत्र, श्रोत्र, प्राण, अपान, व्यान समस्त सम्पूण है। मैं समूचा सम्पूर्ण हूँ।

इतिहास के क्रम में आदर्श पुरुष का आदिकाल की तुलना में आज घोर पतन पाते हैं। इससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि डार्विन का विकासवाद का सिद्धान्त सिर के बल खड़ा है। उसे सीधा करने की आज महत आवश्यकता है।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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